रविवार, अक्तूबर 07, 2007

नो स्मोकिंग : फिर तलब, है तलब [No Smoking : Music Review]

[वैधानिक चेतावनी : नो स्मोकिंग का संगीत स्वास्थ्य के लिये हानिकारक साबित हो सकता है.. बार बार की रिवाईंडिंग आपकी उंगलियों को नुकसान पहुंचा सकती है.. और संगीत का हर कश आपको इस एल्बम का तलबगार बना सकता है ]


बीड़ी की आग अभी तक बुझी नहीं थी, कि गुलज़ार साब विशाल के साथ सिगरेट लेकर हाज़िर हो गये हैं... नो स्मोकिंग का संगीत आ गया है.. हालांकि हर गीत सिगरेट विरोधी स्वर लिये हुए है मगर यकीन मानिये इसके संगीत के एक एक कश में बहुत नशा है.. एक बार सुनने के बाद फिर से सुनने कि तलब लगती है.. बहुत अल्हदा किस्म की फ़िल्म लग रही है नो-स्मोकिंग और संगीत ने भी इस धारणा को और मजबूत बना दिया है... एल्बम के सारे गीत फ़िल्म की नायिका (सिगरेट.. शायद खलनायिका भी कह सकते हैं) और नायक जौन के उसके मोहपाश में बंधे होने की दास्तां को बयां करते हैं...
सिगरेट की खौफ़नाक़ खूबसूरती के मंज़र बहुत खूबी से इस एलबम के गीतों में उकेरे गये हैं
गुलज़ार साब ने अपने गीतों मे सिगरेट पीने वालों की ज़िन्दगी के एक्स-रे, सर्जरी और पोस्ट-मार्टम कविताई अन्दाज़ में पेश किये हैं..


एल्बम का पहला गीत अदनान सामी ने गाया है और क्या खूब गाया है.. सिगरेट की सुलगन और ज़िन्दगी की क़तरा कतरा पिघलन को, उलझन को डूब के गाया है

फिर तलब, है तलब...
बेसबब, है तलब
शाम होने लगी है, लाल होने लगी है

जब भी सिगरेट जलती है, मैं जलता हूं
आग पे पाँव पड़ता है, कमबख़्त धुएं में चलता हूं

"फिर किसी ने जलाई, एक दिया सलाई
आसमां जल उठा है, शाम ने राख उड़ायी"

नायक के अन्दर की धीमी धीमी सुलगन, और धीरे धीरे ही राख में तब्दीली को गुलज़ार अपने ही अन्द्दज़ में बहुत खूबी से कह जाते हैं

"उपले जैसे जलता हूं, कम्बख्त धुएं में चलता हूं"

और विजुअल कन्स्ट्रक्शन देखिये
"लम्बे धागे धुएं के सांस सिलने लगे हैं
प्यास उधड़ी हुई है, होठ छिलने लगे हैं
शाम होने लगी है, लाल होने लगी है" (ज़िन्दगी की शाम, खून की लाली?)

गीत सुनने के बाद ये अन्दाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाता है कि गीत का सबसे मजबूत पक्ष अदनान की गायकी में है, विशाल की शानदार कम्पोजिशन में या गुलज़ार साब के शब्दों मे.. तीनों का मेल एल्बम को बेहतरीन शुरुआत देता है. गीत बाद मे सुनिधि की अवाज़ में भी है, और वो गीत भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है.. मगर अदनान के सामने थोड़ा फीका सा लगता है..

अगला गीत "फूंक दे" भी दो बार है, रेखा भारद्वाज और सुखविन्दर सिंह के स्वरों में.. यकीन मानिये दोनो वर्शन दो अलग अलग गीतों सा मज़ा देते हैं.. रेखा का वर्शन रस्टिक फ्लेवर में है.. और गुलज़ार साब के बोल सिगरेट के ज़हर के अपने ही तरीके से बयां करते हैं

"हयात (ज़िन्दगी) फूंक दे, हवास (रूह) फूंक दे
सांस से सिला हुआ लिबास (शरीर) फूंक दे.. "

"पीले पीले से जंगल में बहता धुआं
घूंट घूंट जल रहा हूं, पी रहा हूं पत्तियां" (तम्बाक़ू की)


कश लगा एल्बम का अगला गीत है.. सुखविन्दर, दलेर मेहंदी और स्वयं विशाल भारद्वाज की आवाज़ में कव्वालीनुमा गीत है... तीनों गायकों का तालमेल अच्छा बन पड़ा है.. गीत अल्बम को मोनोटोनस होने से बचाता भी है, फिर भी एल्बम क सबसे कमजोर गीत है

"ये जहान फ़ानी है...बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा"


इसके बाद बारी आती है एल्बम के सबसे खूबसूरत लिखे गये गीत ’एश-ट्रे’ की.. विशाल की कम्पोसिशन गीत के मूड के मुताबिक है और और नये गायक देवा सेन गुप्ता इस मुश्किल से गीत को सफलता से निभा गये हैं...

"बहुत से आधे बुझे हुए दिन पड़े हैं इसमे
बहुत से आधे जले हुई रात गिर पड़ी हैं
ये एश-ट्रे भरती जा रही है"

बहुत खूब!


फिर तलब... है तलब...
इस तलब के लिये बहुत बहुत शुक्रिया..
विशाल को, गुलज़ार साब को, और अनुराग कश्यप को, जिन्होने बिकाऊ संगीत के बजाय ऐसा संगीत चुनने में हिम्मत और ईमानदारी दिखायी जो स्क्रिप्ट के अनुरूप है..


और मैं फिर से री-वाईण्ड कर रहा हूं...

मंगलवार, अक्तूबर 02, 2007

सचिन देव बर्मन स्मृति [मेरे पिताजी का बोया पौधा गुलज़ार ] Pancham Remembers

आज सचिन देव बर्मन जी का १०१वां जन्मदिवस है. गुलज़ार साब ने सचिन दा के साथ ही गीतकार के रूप में शुरुआत की थी... प्रस्तुत है इस अवसर पर पंचम का 80 के दशक का लिखा एक आलेख "मेरे पिताजी का बोया पौधा - गुलज़ार"



मेरे पिताजी का बोया पौधा - गुलज़ार

आज से लगभग बीस साल पहले की बात है. एक दिन मेरे पिताजी (स्व सचिन देव बर्मन) मुझे अपने साथ 'मोहन स्टुडिओ' ले गये, जहां बिमल-दा की फ़िल्म सुजाता की 'सिटिन्ग' थी. मैं वहां के लोगों के लिये बिल्कुल नया था,
इसलिये पिताजी ने मुझे बिमल-दा की यूनिट के सभी लोगों से मिलाया. उन्हीं में से एक थे बिमल-दा के असिस्टेन्ट - गुलज़ार

उनके नाम से मैने समझा कि शायद वे किसी मौलवी के रिश्तेदार होंगे, लेकिन जब उनका असली नाम पढा, तब मैने जाना कि वास्तव में वो सिख हैं पर बाल कटवा दिये हैं.

तब से ही हम लोगों की जान पहचान हो गयी.

उन दिनो मैं पिताजी का असिस्टेन्ट हुआ करता था. मेरे कोइ खास दोस्त नहीं थे, इसलिये गानों की सिटिन्ग खत्म होने पर मैं सीधा गुलज़ार के पास चला जाता था. उन दिनों वे जुहू में रघुनाथ झालानी वगैरह के साथ रहते थे.
वहीं जाकर मैं उन सबके साथ बैठता था. वहां हम दोनो की बात-चीत सिर्फ़ फ़िल्मों पर ही हुआ करती थी. अच्छी बात ये थी कि हम लोग सिर्फ़ काम की बातें किया करते थे, फ़ालतु बात तो शायद कभी की ही नहीं. उन बैठकों में
मुझे फ़िल्म कला के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला.

फिर आयी फ़िल्म 'बन्दिनी'. गुलज़ार ने इसमे मेरे पिताजी के संगीत निर्देशन में एक बडा खूबसूरत गीत लिखा 'मोरा गोरा अंग लई ले'. लेकिन चुंकि उस वक्त पिताजी के साथ पहले से ही कुछ दूसरे गीतकारों की टीम बन चुकी थी, इसलिये गुलज़ार को उनके साथ काम करने का उतना मौका न मिल सका, जितना की उन्हें वास्तव में मिलना चाहिये था

तभी से मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि अगर कभी मैं संगीत निर्देशक बना, तो इनके साथ ज़रूर काम करूंगा.

बाद में मैं संगीत-निर्देशक बन गया, और फिर आयी फ़िल्म 'परिचय', जिसमे हम दोनो पहली बार एक-दूसरे से गीतकार-संगीतकार के रूप में मिले

एक दिन की बात है. मैं किसी फ़िल्म की 'बैक-ग्राउन्ड म्युजिक' के सिल-सिले में 'राज-कमल स्टुडिओ' गया हुआ था. वहां गुलज़ार भी थे.. उन्होने मुझ-से कहा...
"पन्चम! एक गीत का मुखडा है, देखो कैसा लगता है!"

मैने कहा "लिखवा दें"

उन्होने वह मुखडा मुझे लिखवाया. जादू था उन शब्दों में ! मैं बिल्कुल चमत्क्रत सा रह गया था उसे सुन-कर! मेरे मन में उसी वक्त यह इच्छा हुई की यह कह दूं कि एक संगीतकार को जितने अच्छे बोल, 'मूड' और 'एक्सप्रेशन्स' मिलते हैं, वह उन्हें उतनी ही अच्छी तरह से स्वर-बद्ध करने की कोशिश करता है. लेकिन मैं कुछ बोला नही.

वह कहने लगे, "अच्छा! मैं चलता हूं."

इस पर मैने कहा, "नहीं! ज़रा दो मिनट ठहरिये"

तब उन्होने देखा की मैं किस तरह गाने कम्पोस करता हूं. लगभग पांच मिनट तक सोचने के बाद मैने उस मुखडे को सुर में ढालने की कोशिश की. लेकिन कोइ खास बनती नज़र नहीं आयी.

तब उन्होने कहा, "चलता हूं, परसों मिलेंगे"

मैं रास्ते भर उसी मुखडे के बारे में सोचता हुआ, उसे तरह तरह के सुरों में गुन-गुनाता हुआ घर लौटा. और उसी रात अपनी फ़िल्म की 'बैक-ग्राउन्ड म्युजिक' खत्म करने के बाद मैं तुरन्त गुलज़ार के घर गया. जब वे बाहर आये,
मैं उन्हें सीधे अपनी कार के अन्दर ले आया. कार में एक 'टेप-रेकोर्डर' लगा हुआ था. उस्में मैने वही मुखडा - जो उन्होने सुबह लिखवाया था - अपनी आवाज़ में थोडी बहुत म्युजिक के साथ रेकार्ड कर लिया था.

मैने टेप चला दिया. गीत बजने लगा

मुसाफ़िर हूं यारों
ना घर है, न ठिकाना
मुझे चलते जाना है
बस चलते जाना

उसे सुनकर वे बहुत खुश हो गये और बोले "पन्चम! गाना बहुत खूबसूरत बना है. इसे परसों तक रेकार्ड करना है."

मैने सोचा कि चलो मेरी मेहनत सफल हुई. लेकिन साथ ही एक परेशानी भी आ खडी हुई. ईश्वर की दया से उन दिनों मैं काफ़ी 'बिज़ी' संगीतकार हो गया था. उसी बीच बहुत सारे काम भी निपटाने थे. इसलिये मैं सोचने लगा कि परसों तक कैसे रिकार्ड करूंगा ? वक्त ही नहीं है. बडी मुश्किल होगी.

अपनी परेशानी ज़ाहिर करने के लिये मैं एक मिनट चुप रहने के बाद उनसे बोला,
"गुलज़ार! तूने मुखडा तो बहुत अच्छा दिया, लेकिन अंतरा बहुत बकवास कर दिया."

यह सुनते ही वे हंस पडे.

उस दिन से हम दोनो काम की दोस्ती में बंध गये. अब हम जब कभी काम के लिये बैठते हैं, तो काम सोचकर नहीं करते हैं. बल्कि उसे 'एन्जाय' करते हैं. अब हम दोनो की आपस में ऐसी 'ट्यूनिंग' हो गयी है के हमेशा यही होता है कि कभी-कभी पहले वे कुछ बोल लिख देते हैं, और उनके 'एक्सप्रैशन्स' को समझ कर उसी के हिसाब से मैं धुन बनाता हूं; और कभी कभी मैं पहले धुन बनाता हूं और उसके 'एक्सप्रैशन्स' के अनुसार वे बोल लिख देते हैं.

लेकिन बात हमेशा बढिया बनती है!

वे कभी भी 'सिटिंग' के लिये कोइ टाइम वगैरह 'फ़िक्स' करके नहीं आते हैं. अपना घर जानकर, अधिकार के साथ, जब जी चाहे चले आते हैं. ऐसे समय में मैं उनसे कहता हूं, "मुझसे काम करवाने आये हो?"

जवाब में वे मुस्कराकर कहते हैं, "पागल हो गये हो ?, मैं तुमसे नहीं, गोरखे से काम लेने आया हूं."

मुझे अकसर वे प्यार से 'गोरखा' कह कर भी पुकारते हैं.

अब तो हम दोनो की एक टीम बन गयी है. अब उन्हैं मेरे संगीत-निर्देशन में फ़िल्म 'गोलमाल' के लिये लिखे गये गीत - 'आने वाला पल जाने वाला है...' - पर 'फ़िल्मफेयर पुरस्कार' मिला तो उस वक्त मुझे लगा कि आज मेरे स्वर्गीय पिताजी का बोया पौधा कितना विशाल हो गया है! जो काम उनसे अधूरा छूट गया था, शायद वह मेरे हाथों पूरा हो रहा है - यह सोचकर खुशी से मेरी आंखें भर आयी थी.

हालांकि, हम दोनों ने बहुत सारी फ़िल्मों में साथ-साथ काम किया है, लेकिन एक बात आज तक मेरी समझ में नहीं आयी है. जब कभी मैं अपने दोस्तों को अपने 'रिकार्ड' किये हुए कुछ ताजे गीत सुनाता हूं, और उनमें से अगर एक भी गीत गुलज़ार का होता है, तो ना जाने कैसे वे लोग तुरंत 'पिन-प्वाइन्ट' कर देते हैं कि यह गीत 'गुलज़ार-टाइप' का है, ज़रूर गुलज़ार का लिखा होगा!

यह 'गुलज़ार-टाइप' क्या है? इसका क्या राज़ है? सच पूछिये तो यह बात मुझे भी नहीं मालूम. जब दोस्तों से पूछता हूं कि आखिर ये 'टाइप' क्या है, तो वे कहते हैं कि ये तो सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता.

शायद ये चमत्कार गुलज़ार के शब्दों क है! उनके अनोखे 'एक्सप्रैशन्स' का है!

अन्त में , एक बात अपनी तरफ़ से और लिखना चाहूंगा, हालांकि, गुलज़ार बहुत पढे-लिखे, समझदार और काबिल गीतकार हैं - लेकिन उनका स्वभाव बिल्कुल बच्चों जैसा है.

राहुल देव बर्मन