हाल ही में कोवलम (केरल) में पहला कोवलम साहित्यिक समारोह आयोजित किया गया. समारोह में गुलज़ार साब ने भी शिरक़त की.. और अपनी नज़्मों से सुनने वालों की आखॊं और अन्तर्मन दोनो को भिगो दिया... खासकर उनकी नज़्म बुढिया रे से..
बुढ़िया, तेरे साथ तो मैंने,
जीने की हर शह बाँटी है!
दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे,
औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक!
उम्र का हर हिस्सा बाँटा है ----
तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी,
सारी कारस्तानियाँ बाँटी, झूठ भी और सच भी,
मेरे दर्द सहे हैं तूने,
तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं,
साथ जिये हैं ----
साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है ?
दोनों में से एक को इक दिन,
दूजे को शम्शान पे छोड़ के,
तन्हा वापिस लौटना होगा ।
बुढिया रे!
(शुक्रिया मोहित, इस नज़्म के कम्प्यूटरीकरण के लिये)
5 टिप्पणियां:
बहुत बहुत आभार इसे हमारे साथ बांटने का!!
गुलज़ार साहब का अंदाज़ ही कुछ और है.. फिलहाल उनके लिखे फिल्म युवराज के गीत धूम मचा रहे है..
आपका ब्लॉग आज ही देखा। अच्छा लगा कि आप गुलज़ार पर अपने केंद्रित कर रहे हैं। वे इतने बेहतरीन शायरों में हैं, और उनकी ज़बान इतनी खुली और खिली है कि हर किसी को वह अपनी बात लगती है।
शुक्रिया इस नज़्म को पढ़वाने के लिए
गुलज़ार साहब का अंदाज़ ही कुछ और है..
शुक्रिया इस नज़्म को पढ़वाने के लिए
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