बुधवार, अगस्त 08, 2007

विश्व हिन्दी सम्मेलन में गुलज़ार (gulzar at world hindi conference)

आठंवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन हाल ही में न्यूयार्क मे आयोजित हुआ.. सम्मेलन के दौरान आयोजित कवि सम्मेलन में गुलज़ार साब अपनी एक नयी नज़्म ’मकां’ के साथ श्रोताओं से रू.ब.रू हुए..

पेश है उनकी ये नज़्म





मकां -

मकां की ऊपरी मंज़िल पे अब कोई नहीं रहता,
वो कमरे बन्द हैं कब से
जो चौबीस सीढियां उन तक पहुंचती थी,
वो अब ऊपर नहीं जाती.

मकां की ऊपरी मंज़िल पर
अब कोई नहीं रहता

वहां पर कमरों मे इतना याद है मुझको,
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे,
बहुत से तो उठाने, फ़ेंकने, रखने में चूरा हो गये थे.

वहां एक बालकनी भी थी,
जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था 'तोता',
वो रोज़ आता था,
उसको हरी मिर्ची खिलाता था,
उसी के सामने छत थी जहां
एक मोर बैठा, आसमान पर
रात भर मीठे सितारे चुगता रहता था.

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंज़िल पे रहते हैं,
जहां पर पियानो रखा है,
पुरानी पारसी स्टाइल का
फ़्रेजर से खरीदा था.
मगर कुछ बेसुरी आवाज़ें करता है,
कि उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं,
सुरों पर दूसरे सुर चढ गये हैं


उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी...
[मकां ज़रा बड़ा है इसलिये नज़्म भी बढ़ गयी है... माफ़ कीजियेगा, कमरे ज्यादा हैं..]

जहां पुरखों की तस्वीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था
हवा फ़िर टेढा कर जाती
बहू को मूंछो वाले सारे पुरखे
’क्लिशे’ लगते थे,
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा
पुराने न्यूज़पेपर में
उन्हें महफ़ूज़ करके रख दिया था,
मेरा एक भांजा ले जाता है
फ़िल्मों में कभी सेट पर लगाता है
किराया मिलता है उनसे.

मेरी मंज़िल पे मेरे सामने मेहमानखाना है
मेरे पोते कभी अमरिका से आयें तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं,
जितनी बार आते है
खुदा जाने वो ही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ़ बन्द है
जहां बत्ती नहीं जलती
वहां एक रोज़री रखी है वो उस से महकता है
वहां वो दाई रहती थी
जिसने तीन बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी
मरी तो मैने दफ़नाया नहीं,
महफ़ूज़ करके रख दिया उसे

और उसके बाद एक दो सीढ़ियां है
नीचे तहखाने में जाती है
जहां खामोशी रोशन है,
सुकूं सोया है
बस इतनी सी पहलू में जगह रखकर
कि जब मैं सीढ़ियों से नीचे आऊं
तो उसी के पहलू में, बाजुओं पर सर रख कर गले लग जाऊं
सो जाऊं

मकां की ऊपरी मंज़िल पे अब कोई नहीं रहता....

गुलज़ार

गुलज़ार के प्रेमचंद

प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं
हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा है
कितने दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी
‘होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक
पोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी
ख़ाली गोद रही आख़िर
कहती रही डूबना ही क़िस्मत में है तो
बोल गढ़ी क्या और गंगा क्या
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
कितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में
‘घीसू’ ने भी कूज़ा-कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी ली
तलछट चाट के आखिर उसकी बुद्धि फूटी
नंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है
‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकाते
सांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली
‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.
‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानी
एक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए
‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थे
अपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'