सोमवार, दिसंबर 08, 2008

Musafir Ka Safar [Main Thak Gaya Hoon...Bahut Raat Huee]

A journey started with the “Parichay” of two legends Gulzar and Pancham.. One night (sometime in early 70s) that got them together in Pancham’s car and sets off to a journey and the night gave birth to the brilliant “Musafir hoon yaaron”.. Well most of the gulzar-pancham fans know about the story of that night.. us raat ki kahaani phir kabhi.. The journey continued for many many years and the duo created many many milestones in the journey together.


The Milestone I am standing tonight at, is a gem of a song “Main thak gaya hoon mujhe sone do” from the film “Musafir” in early 80s… Another legendary musafir “Kishore da” teamed up in building this milestone Musafir was directed by Dr Jabbar Patel (Jait re Jait and Subah) featured Naseeruddin Shah, Rekha, Pankaj Kapoor, MunMun Sen in the main cast..


“Main thak gaya hoon” is very comprehensive song as far as the picturisation is concern…and it comes at a very important time in the film… If you’ve seen Vijay Tendulkar’s play “Panchhi aise aate hain”… or the film “Thoda sa roomani ho jaaye” or even the Sanjay Dutt-Urmila’s flick “Khoobsurat”.. The storyline of Musafir is some-what on the similar lines… where a criminal [not in all the instances] (rather a suspect) kind of personality reaches an unknown place [running away from his past] and finds a family to stay with…. We find the the members of the family lacks confidence in life [specifically our heroine, in all three instances]… The hero helps them to change their attitude towards life and build confidence…


In Musafir, the hero is Naseeruddin Shah (Man on the run) and the heroine Rekha [a village girl from south india]…. The song comes at a very important place where Naseer is running away [after killing his bewafa wife Munmun sen]… He wants to run away from his past and reach a place where he can start afresh… The song starts Naseer’s journey to an unknown destination…


Just after the murder, Naseer gets into a Taxi, the Taxiwala asks “Kia sahab, kahan le chalun”.. Naseer replies “Jahan tum le chalo”.. The song starts in night, Naseer traveling in Train… and in background Kishore’s voice starts “Ho bahut raat huee.. thak gaya hoon mujh sone do.. ho bahut raat huee, chaand se keh do utar jaaye bhut baat huee”.. The interlude after the mukhda carries on in the daylight and Naseer is shown traveling in the truck…. during the stanza he gets down and walks thru the landscapes in the heat of the day… “Dhoop se keh do utar jaaye bahut baat huee”…


The next stanza begins with some place in Kerla… sunset time… Naseer is shown traveling in a boat… thats where Pancham does his usual Maanjhi act… [Malaiyya chalo dheere dheere, which is very close to Rehman's maanjhi act of "Dil hai chhota sa".. a south indianish maanjhi pattern by Pancham.. infact the whole film had some beautiful south indianish background pieces by Pancham].. Gulzar saab comes this time with “Waqt se keh do gujar jaaye.. bahut baat huee”.. slowly this sunset turns to night with “Mein thak gaya  hoon”…and the song ends with the morning where naseer is shown sleeping on a sea shore.. [some village in South India]..


From this point to the end, the film lives on in this village only (Naseer meeting Rekha’s family.. The family is unable to find a suitable match for Rekha)… [a sidenote for Pankaj Kapoor's fans on this forum, this was his first prominent screen appearance...]  Coming back to the song, The Singing, Lyrics, Composition and Picturisation every aspect of the song is just perfect…

Aashiyane ke liye chaar tinake bhi the
Aasre raat ke aur din ke bhi the
Dhoondhte the jise wo zara si zameen
Aasmaan ke tale kho gayee hi kahin…

The song travels from Train to Truck to Boat, from Railway track to Road to River to Sea.. from night to morning to day to evening.. One of the best traveling song of our times? :)

Hats off to the Team of Gulzar-Pancham-Kishore…

Remember another great traveling song by the same team “Raah pe rahate hain…” ? Kishore da and Pancham da “khush raho ahale watan, ham to safar karate hain” gaa kar alvida kah gaye….gulzar saab aaj is safar mein akele khade hain..


Keep listening the immortal melodies…
Song : Thak gayaa hoon, bahut raat huee
Film : Musafir (1984)
Music : RD Burman
Lyricist : Gulzar
Singers : Kishore Kumar, Pancham

Kishore:

गीत : थक गया हूं, बहुत रात हुई
फ़िल्म : मुसफ़िर (१९८४)
संगीतकार : आर.डी. बर्मन
गीतकार : गुलज़ार
गायक : किशोर कुमार, आर.डी. बर्मन


हो बहुत रात हुई..
थक गया हूं, मुझे सोने दो
हो बहुत रात हुई

चांद से कह दो उतर जाये
बहुत बात हुई -२

थक गया हूं....रात हुई

आशियां के लिये चार तिनके भी थे
आसरे रात के और दिन के भी थे
ढूंढते थे जिसे, वो ज़रा सी ज़मीं
आसमां के तले खो गयी है कहीं
धूप से कह दो उतर जाये, बहुत बात हुई

मैं थक....रात हुई

[ओ मलैय्या, चलो धीरे धीरे (पंचम की आवाज़ में)]

याद आता नहीं अब कोई नाम से
सब घरों के दिये बुझ गये शाम से
वक़्त से कह दो गुज़र जाये, बहुत बात हुई

मैं थक....रात हुई

ज़िन्दगी के सभी रास्ते सर्द हैं
अजनबी रात के अजनबी दर्द हैं

याद से कह दो गुज़र जाये, बहुत बात हुई

मैं थक गया हूं, मुझे सोने दो, बहुत रात हुई

[ओ मलैय्या, चलो धीरे धीरे  fades out in pancham's voice "O malaiyya chalo dheere dheere"]

So thats all folks for tonight…. Main jaata hoon, mujh sone do, bahut raat huee…

[Originally published on passionforcinema.com]

गुरुवार, दिसंबर 04, 2008

चुनाव (elections)

राजस्थान में आज चुनाव का दिन... वोट पड़ रहे हैं नयी सरकार के लिये.. पर्ची इस बार भी पहुंची है और याद दिला रही है गुलज़ार साब की एक त्रिवेणी की



पर्चियां बंट रही हैं गलियों में
अपने क़ातिल का इन्तेख़ाब करो

वक़्त ये सख़्त है चुनाव का !



Parchiyaan bat rahi hain galiyon mein
Apne qaatil ka intekhaab karo
Waqt ye sakht hai chunaav ka

सोमवार, नवंबर 10, 2008

बुढ़िया रे!

हाल ही में कोवलम (केरल) में पहला कोवलम साहित्यिक समारोह आयोजित किया गया. समारोह में गुलज़ार साब ने भी शिरक़त की.. और अपनी नज़्मों से सुनने वालों की आखॊं और अन्तर्मन दोनो को भिगो दिया... खासकर उनकी नज़्म बुढिया रे से..


बुढ़िया, तेरे साथ तो मैंने,

जीने की हर शह बाँटी है!


दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे,

औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक!

उम्र का हर हिस्सा बाँटा है ----


तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी,

सारी कारस्तानियाँ बाँटी, झूठ भी और सच भी,

मेरे दर्द सहे हैं तूने,

तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं,


साथ जिये हैं ----

साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है ?


दोनों में से एक को इक दिन,

दूजे को शम्शान पे छोड़ के,

तन्हा वापिस लौटना होगा ।

बुढिया रे!


(शुक्रिया मोहित, इस नज़्म के कम्प्यूटरीकरण के लिये)

रविवार, सितंबर 07, 2008

"विज्ञान की रंगोली, साहित्य के झरोखे से" : Gulzar saab at IISc

गये हफ़्ते गुलज़ार साब पहुंचे भारतीय विज्ञान केन्द्र, बंगलौर, (I.I.Sc.) संस्था के शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिये.. उनकी चर्चा का विषय बड़ा अनूठा था, "विज्ञान की रंगोली, साहित्य के झरोखे से".. संस्था से शोध कर रहे श्रीराम यादव ने कार्यक्रम का बयान कुछ इस तरह से दिया है..

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"विज्ञान की रंगोली, साहित्य के झरोखे से"

दोस्तो,

ये एक अनोखा अनुभव था, जब हम सभी ने गुलज़ार साब का वैज्ञानिक रूप देखा. ये वक़्त था जब गुलज़ार साब ने IISc के शताब्दी लैक्चर सीरीज़ में एक साहित्यकार के हैसियत से अपना वैज्ञानिक मूड सामने रखा. अभी तक तो हम उनकी शायरी में कुछ कोस्मोस का ज़िक्र होते हुए देखा किये थे, यह पहला मौक़ा था जब एक शायर के नज़रिये से पूरे का पूरा क़ायनात उनके ज़िक्र में देखा.

28 अगस्त, 2008, शाम 4 बजे, जब IISc के लोगों से भरा जे. एन. टाटा सभागार, गुलज़ार साब का इन्तज़ार कर रहा था. सभी की निगाहें उस दरवाजे की तरफ़ थीं, जहां एक पर्दा लगा हुआ था. जैसे ही गुलज़ार साब ने स्टेज पर क़दम रखा, पूरे IISc परिवार ने अपनी सीट पे खड़े हो कर तालियों से स्वागत किया. इन्जीनियरिंग विभाग के डीन, प्रो. बिस्वास, और आधिकारिक भाषा विभाग के मुख्य अधिकारी, प्रो. रूद्र प्रताप ने गुलज़ार साब का अभिवादन किया. आखिर वो लम्हा आया जिसका इन्तज़ार पिछले ६ महिनों से था. जब गुलज़ार साब माईक पे सबके सम्मुख प्रस्तुत हुए. एक बार फिर से पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.


गुलज़ार साब ने अभिवादन स्वीकार किया और थोड़ा अपने पढ़ाई के दिनों का ज़िक्र करते हुए अपना लैक्चर शुरु किया.

"जब मैं विज्ञान और कला के चयन की जद्दो-ज़हद में फ़ंसा तो विज्ञान इसलिये नहीं लिया क्योंकि उसमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है, हार्ड वर्क करना पड़ता है और मैं हार्डली वर्क करता था". "पढ़ाई लिखाई में जो कमी रह गयी थी वो अब लिखकर पूर कर रहा हूं और खड़ा रहने की आदत तो बचपन में टीचर्स ने ही डाल दी थी. बाद में जब कोस्मोस की स्टडी की तो विज्ञान ना पढ़ने का थोड़ा दुख हुआ."


जब हम वैज्ञानिकों के सामने विज्ञान की बिग-बैन्ग थ्योरी को अपने नजरिये से पेश किया तो पूरा सभागार खुश और हैरान हो गया. लाइफ़ के ईवोल्युशन, सैल कैसे बना और कैन्सर क्या होता है गुलज़ार साब ने बहुत ही खूबसूरत अन्दाज़ में बयां किया.

अपनी नज़्म 2085 में बड़ी एनेर्जी और छोटी एनेर्जी के गुफ़्तगु को क्या खूब बयां किया उन्होने.
उनके अनुसार, वैज्ञानिक और साहित्यकार काफी सिमिलर होते हैं, वैज्ञानिक को फ़ैक्ट्स सर्च करके लिखना पड़ता है और साहित्यकार को महसूस करके.

दोनो के अन्तर पर एक ही नज़्म के दो हिस्से बयां किये

वैज्ञानिक:

"मेरी ख़ुदी को मारना चाहा तुमने चंद चमत्कारों से
और मेरे एक प्यादे ने चलते चलते
तेरा चांद का मोहरा मार लिया"

शायर:
"मौत को शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैने जिस्म का खोल उतार कर सौंप दिया, और रूह बचा ली"

"पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी"
[पूरी नज़्म : http://groups.yahoo.com/group/gulzarfans/message/5456]

बारी थी एक और मज़ेदार अन्तर की.. उन्होने सभागार मे उपस्थित लोगों से पूछा चांद पर पहला क़दम किसने रखा था.. सब के सब के पास जवाब था "नील आर्मस्ट्रांग"

फिर पूछा "दूसरा शख्स कौन था"
इस बार जवाब कुछ लोगों तक सिमट गया "एडविन एल्ड्रिन"





दलील कि दोनो वैज्ञानिक एक ही साथ पहुंचे, केवल एक क़दम का फ़ासला था, फिर भी दूसरे का नाम कम लोग जानते हैं.. एक और शख्स था जो राकेट में ही रहा, नीचे नहीं उतरा.. कौन था वो.. कभी आपने उसके बारे में सोचा? उसके दिल पे क्या गुजरी होगी. क्या उसकी उपलब्धि किसी से कम थी?.. शायर उसके बारे में भी सोचता है, जिसे वैज्ञानिक अहमियत नहीं देते.. उनको फ़ैक्ट्स चाहिये मगर कवि उन फ़ैक्ट्स पे नहीं जीता, बल्कि उनकी शैडोज तक भी पहुंचता है.


उनकी इस मज़ेदार चर्चा के बाद बारी आयी रूबरू सवाल जवाब की.. बज़्म.ए.गुलज़ार में
इस प्रोग्राम का स्वरूप बहुत ही खुला रखा गया था.. कुछ मज़ेदार सवाल जवाब पेश हैं

स: गुलज़ार साब, दिल और दिमाग़ में शायर दिल को ज्यादा अहमियत देता है जबकि भावनयें दिमाग़ में पैदा होती हैं और उनका दिल से कोई रिश्ता नहीं?

ज: जब दिमग काम करना बंद कर दे तो भी इन्सान को मुर्द क़रार नहीं दिया जाता जबकि दिल के रुकते ही उसे मुर्दा ठहरा दिया जाता है

स: कभी आपकी ज़िन्दगी में दिल-ओ-दिमाग़ में तक़रार हो तो कौन जीतता है?

ज: शेर,
"मैं दिल को और दिल मुझे समझाता है
यहां कोई किसी की नहीं सुनता"


स: अगर आप शायर नहीं होते तो क्या होते?
ज: मेरी पत्नी कहती है, अगर तुम शायर नहीं होते तो बहुत ही आर्डिनेरी इन्सान होते

स: आप इतनी गहराई से कैसे लिख लेते हैं?
ज: गहराई अपने अनुसार ही डिफ़ाइन करना होता है, समुन्दर या पहाड़

स: उर्दू जबान खत्म हो रही है?
ज: कौन कहता है मुझे तो बढ़ती नज़र आ रहि है. पार्टीशन के बाद उर्दू को एक मुल्क़ (पाकिस्तान) मिल गया. कभी आपने सिन्धी के बारे में सोचा, जिनका मुल्क़ भी छिन गया और जुबान भी.

"मैं जितनी भी ज़बानें जानता था, वो सारी आज़माईं हैं
ख़ुदा ने एक भी समझी नहीं अब तक
.........
.........
"पढ़ा लिखा अगर होता खुदा अपना
न होती गुफ़्तगु तो कम से कम
चिट्ठी का आना जाना तो लगा रहता"



स: फ़िल्में समाज को कैसे अफ़ैक्ट करती हैं? जो घटनायें दिखयी जाती हैं...


आ. फ़िल्म समाज को उतन अफ़्फ़ैक्ट नहीं करतीं जितना समाज फ़िल्म को अफ़ैक्ट करता है. फ़िल्म तो बस समाज की ही बातें पेश करती हैं, थोड़ा सा वोल्यूम बढा कर. कुछ घटनायें असली ज़िन्दगी में इतनी डरावनी होती हैं कि फ़िल्म पे भी उतारा नहीं जा सकता. क़श्मीर की गली आप से रात के सन्नाटे में गुज़रें, कोई नहीं हो, फिर भी आपकी जो हालत होगी उसे फ़िल्म में नहीं उतारा जा सकता. (फ़िल्म में कम से कम बैक ग्राऊण्ड म्युसिक होता है)

"मकान की ऊपरी मंज़िल पर
अब कोई नहीं रहता,
कमरे बन्द हैं कब से.
जो चौडी सीढियां उन तक पहुंचती थी,
वो अब ऊपर नहीं जाती.
मकान की ऊपरी मंज़िल पर
अब कोई नहीं रहता
...............
उसी मन्ज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहां पुरखों की तस्वीरें टंगी थी
मैं सीधा करता रहता था
हवा फ़िर टेढा कर जाती
बहू को मून्छो वाले सारे पुरखे
क्रिएचर लगते थे,
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा
पुराने न्यूज़ पेपर में
महफ़ूज़ करके रख दिया था,
मेरा एक भांजा ले जाता है
फ़िल्मों में कभी सेट पर लगाता है
किराया मिलता है उनसे.
..............
मेरी मंज़िल पे मेरे सामने मेहमानखाना है
मेरे पोते कभी अमरिका से आयें तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं,
जितनी बार आते है
खुदा जाने वो ही आते हैं या
हर बार कोई और आता है
.................
"
[पूरी नज़्म : http://gulzars.blogspot.com/2007/08/gulzar-at-world-hindi-conference.html]


स: "मैं शायर तो नहीं, मगर तुमको देखा तो शायरी आ गयी" में आप कितना विश्वास करते हैं?
ज: ये तो आपके विश्वस की बात है, मेरे लिये तो काम्प्लिमेंट हो, मगर और कोई आपसे खफ़ा हो जयेगा.

स: नये गीतकरों में आप किसको अपनी विरासत सौंपना चाहेंगे
ज: अभी तो मैं हूं.:)






स: आर्ट्स लोग इसलिये आप्ट नहीं करते, क्योंकि सोशल प्रेशर और स्टेटस
ज: ये आप्शन की बात है, अगर आप्शन है तो पथ्हर की हवेली हो, शीशे के घरोन्दा और तिनकों का नशेमन.

स: आप अपने सोन्ग्स में इतना वेरिएशन कहां से लाते हैं
ज: फ़िल्म के स्क्रिप्ट से, जो किरदार जो जुबान बोलता है, गीत वैसे हि लिखे जाते हैं अब गैन्गस्टर है यही कहेग "गोली मार भेजे में" य ओंकारा में जो पश्चिम यू पी के किरदर थे वो "बिड़ी जलाइलो या नमक इश्क़ का" की भाषा

इसके अलावा बहुत से सवाल उठे, खूबसूरत जवाबों के साथ लौटाये.. अभी इस पल सभी का ज़िक्र करन मुश्किल होगा.. 3.5 घन्टे कैसे बीते पता ही नहीं चला.. बाद में गुलज़ार साब ने बैठ कर, बड़े इत्मिनान से हर शख्श को औटोग्राफ दिया, सबको फोटो का मौका मिला, और सबसे बातें की.हर शख्श ने उन्हें छूकर महसूस किया. गुलज़ार साब IISc के इतिहास में एक विशेष व्यक्तित्व और साहित्यकार की हैसियत से अपना नाम दर्ज़ कर चुके हैं.


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शुक्रिया श्रीराम इस खूबसूरत शाम के बयां के लिये

सोमवार, अगस्त 18, 2008

गुलज़ार साब! : जन्म दिन मुबारक़

गुलज़ार साब के ७४वें जन्म दिन पर उनके सभी चाहने वालों की ओर से बहुत बहुत मुबारक़बाद!

अगर आप अपनी शुभकामनाएं सीधे गुलज़ार साब तक पहुंचाना चाहते हैं तो यहां पर क्लिक करें

मोरा गोरा अंग लेई ले....- गुलज़ार, एक परिचय

आज गुलज़ार साब का जन्मदिन है, और हिन्द युग्म पर संजीव सारथी ने जन्म दिन की बधाई पेश की है

http://podcast.hindyugm.com/2008/08/blog-post_18.html

सोमवार, अगस्त 11, 2008

शहरयार गुलज़ार : शहरनामे

शहरयार : गुलज़ार
नया ज्ञानोदय, जून २००८


भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक (जून २००८) में गुलज़ार साब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..

प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई



बड़ी लम्बी सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पांव जमीं पर हैं
समन्दर छोड़ती है , ना समन्दर में उतरती है
ये नगरी बम्बई की..



....


यहां जीना भी जादू है
यहां पर ख्वाब भी टांगों पे चलते हैं
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी मे रक्खे मूंग के दाने
चटखते हैं तो जीभें उगने लगती हैं

यहां दिल खर्च हो जाते हैं अक्सर कुछ नहीं बचता

.....


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मद्रास (चेन्नई)



शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है

ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....

.....

ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है

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कोलकता


कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!

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दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर


लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
चारपाई बुनने वाला जब
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे हाथ रख कर
इक हांक लगता था - ’चार पाई. बनवा लो...’
खसखस कि टट्यों में सोये लोग अन्दाज़ा लगा लेते थे.. डेढ़ बजा है..
दो बजते बजते जामुन वाला गुजरेगा

’जामुन.. ठन्डे.. काले जामुन’


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न्यूयार्क

तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने

अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये

....


तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं

कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर

......


मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं


तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं

मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..
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शहरयार : गुलज़ार
नया ज्ञानोदय, जून २००८
(भारतीय ज्ञानपीठ)
jnanpith.net

बुधवार, अप्रैल 16, 2008

खर्ची

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोइ छीन लेता है,
झपट लेता है अण्टी से!

कभी खीसे से गिर पढ़ता है तो गिरने की
आहट भी नहीं होती,
खरे दिन को भी मैं खोटा समझ के भूल जाता हूं!


गिरेबान से पकड़ के मांगने वाले भी मिलते हैं
"तेरी गुज़री हुई पुश्तों का कर्ज़ा है,
तुझे किश्तें चुकानी हैं--"

ज़बर्दस्ती कोई गिरवी भी रख लेता है, ये कह कर,
अभी दो चार लम्हे खर्च करने के लिये रख ले,
बक़ाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
जब होगा, हिसाब होगा

बड़ी हसरत है पूरा एक दिन, इक बार मैं
अपने लिये रख लूं

तुम्हारे साथ पूरा एक दिन, बस खर्च करने कि तमन्ना है!!