सोमवार, अक्तूबर 12, 2009

Jugalbandi gulzar - jagjit singh in hyderabad [जुगलबन्दी - गुलज़ार-जगजीत सिंह, हैदराबाद में]

अक्तूबर 11, 2009 (October 11, 2009)

वो शाम बहुत हसीन थी! (report by K Venkat)

हैदराबादी नवाबों के चौमोहोल्ला पैलेस में, खुले आसमां के नीछे, जहां जगजीत सिंह की आवाज़ हवा में सराबोर हुई, वहीं गुलज़ार साब ने अपनी चन्द नज़्मों से ज़िन्दगी के कुछ नये "इमजेस" बना दिये. यूं तो बहुत बार, कई शहरों में जगजीत जी को सुना, मगर कल महफ़िल कुछ और ही रंग में थी. रात तो हर रोज़ होती थी मगर, इस बार, चांद भी था.

गुलज़ार साब और जगजीत जी एक बग्घी में बैठ कर मन्च के पास पधारे, और आते ही दोनों को गुल-पोशी की गयी. फिर जगजीत जी ने महफ़िल की शुरुआत अपनी ग़ज़लों से की. तकरीबन एक घन्टे बाद, जब तक हम बेसब्र हो चले थे, गुलज़ार साब को जगजीत जी ने मन्च पर बुलाया और उनका परिचय भी अपने ही अन्दाज़ में किया "गुलज़ार साब ’मल्टी फ़ेसेटेड पर्सनैलिटि हैं मगर इनके पास एक ही ड्रैस है... (गुलज़ार साब अपने ट्रेडमार्क सफ़ेद लिबास में थे) ...ये प्रोड्य़ुसर, डायरेक्टर, स्क्रिप्ट राईटर, डायलोग राईटर, लिरिसिस्ट हैं और आज हमारी खुशकिस्मति हैं की वो हमारे बीच कुछ नज़्में लेकर आये हैं"

फिर गुलज़ार साब ने शुरुआत की, के किस तरह ज़िंदगी एक ’हिरन’ की तरह है जिसके पीछे हम भाग रहें हैं और आखिर में ये समझ नहीं आता के कौन किसके पीछे भाग रहा है. फिर हैदराबाद को सलाम करते हुए उन्होने उर्दू ज़बान पे एक नज़्म कही जो मेरे खयाल से, हर उस शख़्स को सुननी चाहिये, जिसे ईश्वर ने बोलने की शक्ति दी हो. फिर बात चली आज के दौर की जहां सब कुछ कम्प्युटराईज़्ड हो गया है और हुम किताबों से किस तरह दूर हो चले हैं. उन्होने कई नज़्मों में अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ों का इस्तेमाल किया मगर जगजीत जी को एक तसल्ली भी दिलायी - "जगजीत मैं अंग्रेज़ी का इस्तेमाल गज़लों में नहीं करूंगा. मगर नज़्म में आज कल के इन नये लफ़्ज़ों का इस्तेमल जायज़ है. अब मैं ‘कम्प्यूटर’ को कुछ और तो नहीं कह सकता". ज़िंदगी के कुछ इमजेस की पोएटिक स्केचेस खींचे, एक नज़्म उम्र के नज़रिये पे पढ़ि (‘अब मैं मकान के ऊपरी मन्ज़िल पे रहता हूं’) और एक नज़्म पाकिस्तान और अपने बीच चल रहे उथल-पुथल के बारे में थी.

आखिर में गुलज़ार साब ने जगजीत जी के बारे में कहा "जगजीत की आवाज़ में सुन कर मुझे मेरे ही लिखी हुई गज़लें, और बेहतर लगने लगती हैं. जगजीत जिस तरह गज़ल को समझ्ते हैं.. किस लफ़्ज़ पे कितना वज़न देना चाहिये और कैसे मनी को उभारना चाहिये, ये उनसे बेहतर कोई और नहीं जानता. ये मैनें पहले भी कहा था, और अब भी कह रहा हूं, "ग़ालिब की आवाज़ - जगजीत हैं" ये कहते हुए ग़ालिब का इन्ट्रोडक्शन "बल्लिमारा के मोहल्ले" नज़्म को पढ़ कर कराया. उन्होने साथ में जगजीत जी से ये इल्तेज़ा भी की "जगजीत जब मैन मन्च से उतरूं और दूसरे हाफ़ की जब शुरुआत करो तो ये मेरी गुज़ारिश है, की वो, ग़ालिब के ग़ज़ल से हो. ये कह कर जब गुलज़ार साब मन्च से उतरे तो जगजीत ने समा की कैफ़ियत को खूब समझ कर सुना दिया "हज़ारों ख्वाहिशैं ऐसीं"

कैमरा नहीं लेकर गया था मगर सैल-फ़ोन से दो-तीन तस्वीरें ली हैं और गुलज़ार साब के सभी नज़्म रिकार्ड भी कर लिये हैं. मगर अभी तक मौका नहीं मिला की उन्हें लैप्टॉप में ट्रान्सफ़र करके आपतक भेज सकूं. अगर रिकार्डिंग क्वालिटी खराब रही तो ये कोशिश ज़रूर रहेगी की सारे नज़्म इन्ग्लिश स्क्रिप्ट लिख कर आपके साथ शेयर करूं.

जय हो!

-वैंकट (हैदराबाद से)