रविवार, मई 13, 2007

सन १८५७ - गुलज़ार की एक नज़्म (1857 - a nazm by gulzar)

एक ऐतिहासिक लम्हे को फिर से याद करने के अवसर ने एक और लम्हे को जन्म दिया, जब अपने गुलज़ार साब संसद में बोले, और क्या खूब बोले... मौक़ा था १८५७ की क्रान्ति के ड़ेढ़ सौ साल पूरे होने के अवसर संसद में उस ऐतिहासिक लम्हे को फिर से याद करने का. गुलज़ार साब ने उस १८५७ की क्रान्ति के कई पहलुओं को अपनी इस नज़्म मे समेटा है.. कैसे उस क्रान्ति की चिंगारी से आज़ादी को रोशनी का जन्म हुआ.. कैसे बिना नेतृत्व के १८५७ की क्रान्ति अपने उद्देश्यों को उस समय हासिल नहीं कर पाई, मगर फिर भी एक राष्ट्रीय आन्दोलन की एक आधारशिला स्थापित करने में सफल रही, कैसे लोगों के दिलों में उस जज़्बे का जन्म हुआ.. और कैसे आज़ आज़ाद होकर भी एक और इन्क़लाब की ज़रूरत है... और लगे हाथों बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार के मसले पे भी अपनी प्रतिक्रिया दे गये. आपको अभी मालूम होगा कि सरकार ने अभी पिछले हफ़्ते ही निर्णय लिया है कि बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार बर्मा से भारत में लाने के प्रकिया मे अब और कोई कोशिश नहीं की जायेगी. बहादुर शाह ज़फ़र ने लिखा था "दो गज़ ज़मीं भी ना मिली कू-ए-यार में".. उसी को गुलज़ार साब ने आगे बढ़ाते हुए अपनी नज़्म में कहा है " चालाक था रहज़न, रहबर को इस क़ू-ए-यार से दूर कहीं बर्मा मे जाकर बांध दिया.. काश कोई वो मट्टी लाकर अपने वतन मे दफ़्न करे"..

आज के हिन्दुस्तान की तस्वीर पेश करते हुए कहते हैं.

"इस देश के सारी नदियों का पानी अपना है, लेकिन प्यास नहीं बुझती
ना जाने मुझे क्यूं लगता है,
आकाश मेरा भर जाता है जब, कोई मेघ चुरा ले जाता है
हर बार उगाता हूं सूरज, खेतों को ग्रहण लग जाता है"


नज़्म पेश है..



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सन १८५७


एक नाम एक ख़याल एक लफ़्ज़
जिस पर हमारी तक़रीबन पूरी नेशनल मूवमेन्ट, आज़ादी की तहरीक़ मुनस्सिब थी
उस एक लफ़्ज़ का जन्म

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एक ख़याल था इन्क़लाब का, सन १८५७
एक जज़्बा था, सन १८५७
एक घुटन थी, दर्द था, अंगारा था जो फूटा था
ड़ेढ़ सौ साल (१५०) हुए हैं
उसकी चुन चुन कर चिंगारियां हमने, रोशनी की है
कितनी बार और कितनी जगह बीजी हैं वो चिंगारियां हमने
और उगाये हैं पौधे उस रोशनी के
हिंसा और अहिंसा से, कितने सारे जले अलाव

कानपुर, झांसी, लखनऊ, मेरठ, रूड़की, पटना
आज़ादी की पहली पहली जंग ने तेवर दिखलाये थे
पहली बार लगा था कि कोई सान्झा दर्द है, बहता है
हाथ नहीं मिलते पर कोई उंगली पकड़े रह्ता है
पहली बार लगा था खून खौले तो रूह भी खौलती है
भूरे जिस्म की मट्टी में इस देश की मट्टी बोलती है

पहली बार हुआ था ऐसा,
गांव गांव, रूखी रोटियां बंटती थी
और ठन्डे तन्दूर भड़क उठते थे

चन्द उड़ती हुई चिन्गारियों से सूरज का थाल बजा था जब
वो इन्क़लाब का पहला गज़र था, सन १८५७

गर्म हवा चलती थी जब
और बया के घोंसलों जैसी पेड़ों पर लाशें झूलती थीं
बहुत दिनो तक महरौली में, आग धुएं मे लिपटी रूहें
दिल्ली का रस्ता पूछती थीं

उस बार मगर कुछ ऐसा हुआ
क्रान्ति का अश्न तो निकला था
पर थामने वाला कोई ना था
जाम्बाज़ों के लश्कर पहुंचे मगर
सालारने वाला कोई ना था

कुछ यूं भी हुआ, मसनद से उठते देर लगी
और कोई न आया पांव की जूती सीधी करे
देखते देखते शाम-ए-अवध भी राख हुई

चालाक था रहज़न
रहबर को इस क़ू-ए-यार से दूर कहीं बर्मा में जाकर बांध दिया
काश कोई वो मट्टी लाकर अपने वतन मे दफ़्न करे

आज़ाद हैं अब, अब तो वतन आज़ाद है अपना
अब तो सब कुछ अपना है
इस देश के सारी नदियों का पानी अपना है
लेकिन प्यास नहीं बुझती
ना जाने मुझे क्यूं लगता है
आकाश मेरा भर जाता है जब
कोई मेघ चुरा ले जाता है
हर बार उगाता हूं सूरज
खेतों को ग्रहण लग जाता है

अब तो वतन आज़ाद है मेरा
चिन्गारियां दो, चिन्गारियां दो
चिन्गारियां दो
मैं फिर से बीजूं और उगाऊं धूप के पौधे
रोशनी छिड़कूं जाकर अपने लोगों पर
वो मिल कर फिर से आवाज़ लगायें

इन्क़लाब! इन्क़लाब! इन्क़लाब!

- गुलज़ार
gulzar

खुशबू की ज़बां में बोलो सभी

गुलज़ार : एक व्यक्तित्व, एक नाम, एक एहसास, एक खुशबू...

एक ने कहानी गढ़ी, सुनाई, एक ने गीत बुने, नज़्में पहनाई
एक ने आवाज़ से, एक ने अल्फ़ाज़ की ख़ुशबू से मेरी ज़िन्दगी महकायी
कई गुलज़ार हैं, इक गुलज़ार का बदन ओढ़े हुए

आइये इस ख़ुशबू को बांटे और फैलायें