मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

इब्नबतूता का भूत [The ghost of Ibn-Batuta]

सुबह सुबह अखबार ने जब दरवाजे पर दस्तक दी तो मालूम हुआ कि इब्नबतूता के भूत साथ में तशरीफ़ लाए हैं। आने का सबब पूछा तो पता चला कि कुछ चिलप्पों करने वाले तथाकथित साहित्यकारों ने शोर मचा कर उन्हें नींद से उठा दिया है। शोर ये कि गुलज़ार साब ने इब्नबतूता का जूता चुरा लिया है।




गुलज़ार ने चुराया इब्नबतूता पहन के जूता

भूत जनाब बहुत परेशान लग रहे थे। वैसे भी अपने समय में पैदल इतना सारा जहाँ घूमे थे कि सदियों तक उसकी थकान खत्म ना हो। अच्छे खासे इतिहास के पन्नों में आराम फ़रमा रहे थे, नींद से उठा कर अखबार की सुर्खियों में यूं अलसुबह खड़ा कर देने के फ़रमान से तकलीफ़ किसको नहीं होगी। और उस पर ये भी कि ना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इब्नबतूता से उनका कोई वास्ता है और ना ही गुलज़ार के। बोले कि ये बिलावजह हंगामा क्युं है बरपा?

हमने कहा जनाब, ये जूते का दौर है, हर तरफ़ जूते का जोर है, चाहे इराक़ हो या भारत, नेता हो या अभिनेता, राजनीति हो या साहित्य का अखाड़ा, विरोध का इन दिनो सबसे बड़ा औज़ार बन गया है जूता। अब यहाँ के साहित्यकारों के हाथ में आपका जूता पड़ गया है, तो उछालने की होड़ लगी हुई है। कुछ तथाकथित साहित्यकार जो अपनी रचनाओं से अपने लिये जगह नहीं बना सके, आपके जूते के विवाद को उछाल के अखबारों की सुर्खियों में जगह बनाने की कोशिश में जुटे हैं। उनको परेशानी इस बात से हो रही है कि गुलज़ार साब ने सर्वेश्वर जी की कविता से आपका नाम और जूता चुरा लिया है।

"मगर मेरे नाम का कॉपीराईट क्या सर्वेश्वर जी के पास है? क्या मेरी पहचान सिर्फ़ उनकी कविता से है, क्या लोग ये भूल गये कि मेरे कई यात्रा वृतांत दुनिया की कई भाषाओं में छप चुके हैं?" भूत जनाब का प्रश्न था।

"शायद भूल ही गये हैं" मैनें बोला तो नहीं वरना जनाब को बड़ी निराशा होती, बस मन ही मन सोचा । फिर सोचा कि शोर बरपाने वालों को इब्नबतूता से क्या लेना देना, उनका लेना देना तो सर्वेश्वर जी से भी नहीं है। हमेशा किसी ना किसी बात पे परेशान रहते हैं ये लोग। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी पर भी पत्थर (या जूता) उछालने की शायद आदत सी हो गयी है इक जमात को। गुलज़ार साब से कुछ खास शिकायतें रहती हैं, हिन्दी साहित्यकारों का एक तबका कहता है उर्दू के शायर हैं, उर्दू वाले कहते हैं आज़ाद हिन्दोस्तानी में लिखते हैं। शायर-साहित्यकार ये भी कहते हैं फ़िल्मों के गीतकार हैं। उनकी आर्ट की आज़ादपरस्ती, ऐसे शोर दबाने की बहुत कोशिश करते रहते हैं

"वैसे इस बार इन लोगों को असल में किस बात से परेशानी है"? भूत जनाब का अगला प्रश्न था

जनाब, इनका तर्क ये है कि सर्वेश्वर जी बच्चों के लिये कविता लिखी, गुलज़ार साब ने उस कविता को चुरा कर फ़िल्मी गीत का रूप दे दिया है। कुछ साहित्यकार लोगों को इसलिए परेशानी है कि आपका नाम साहित्य से उठा कर फ़िल्मी गीत में ले लिया है और कुछ साहित्यकारों को ये कि गुलज़ार साब ने बिना श्रेय दिये सर्वेश्वर जी की कविता में से आपका नाम और जूता कॉपी किया है। अब सर्वेश्वर जी की कविता या गुलज़ार साब के गीत दोनों में आप की उपस्थिति सिर्फ़ इसलिए है कि आपका नाम जूता के साथ अच्छा ’राइम’ होता है, आपके नाम के ’साउंड’ मॆं बहुत दम है, जो एक कविता या गीत में प्रभाव के लिये बहुत ज़रूरी है। जहाँ तक संदर्भ की बात है दोनों ने आपका और आपके जूते का उपयोग बिलकुल अलग तरीके से किया है। सर्वेश्वर जी की कविता जहां बच्चों के लिये मज़ेदार ’नॉनसेन्सिकल’ फ़ारमेट मे लिखी गई है वहीं गुलज़ार साब ने इसका उपयोग फ़िल्म की स्क्रिप्ट और सिचुएशन के आधार पे किया है। फ़िल्म की शुरुआत में जहां दो चोर, अपने बॉस के पिंजरे से फ़ुर्र हो रहे है, आज़ाद हो रहे हैं... इधर से उधर घुमक्कड़ों की तरह भाग रहे हैं, दबे पाँव निकल रहे हैं, उन्होने जूता पहना नहीं है, बल्कि बगल मे दबाया है क्युंकि पहनने के बाद जूता आवाज़ करेगा और उनका फ़ुर्र होना, भागना आसान नहीं होगा। वैसे मैं क्या फ़ैसला करूं, जनाब आप खुद ही दोनों (कविता और गीत) एकसाथ पढ़ लें और कि क्या ये वाकई में कॉपी है?










सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

गुलज़ार

इब्नबतूता
पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते उनका जूता
पहुंच गया जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दूकान में

इब्‍ने बतूता,
बगल में जूता
पहने तो करता है चुर्रर
उड उड आवे, दाना चुगेवे
उड जावे चिडिया फुर्रर

अगले मोड पे, मौत खड़ी है
अरे मरने की भी क्‍या जल्‍दी है
होर्न बजाके, आ बगियन में
हो दुर्घटना से देर भली है
चल उड जा उड जा फुर फुर

दोनों तरफ से बजती है ये
आय हाय जिंदगी क्‍या ढोलक है
हॉर्न बजाके आ आ बगियन में
अरे थोड़ा आगे गतिरोधक है

इब्‍ने बतूता..


"क्या कहते हैं जनाब"?

"पहली बात तो दोनो रचनाओं के उपयोग और संदर्भ में कोई समानता मुझे तो नज़र नहीं आई । और अगर लोगों को ये आपति है कि गुलज़ार साब ने गीत के साथ सर्वेश्वर जी की कविता का ज़िक्र नहीं किया, तो वे ये नहीं कहते कि सर्वेश्वर जी ने कविता में मेरा नाम मेरे किस किस्से या किताब से पढ़ कर दिया है। उनके जेहन में मेरा नाम भी तो मेरा ही कोई किस्सा पढ़ कर आया होगा" जनाब का जवाब था। "बेवजह का मसला खड़ा किया है कुछ लोगों ने और मेरी नींद भी खराब कर दी। है अब मैं भी चिड़िया की तरह फ़ुर्र होता हूं" कह कर जनाब गायब हो गये।

मैं सोच रहा था कि गुलज़ार साब पहले भी कई बार इस तरह के आरोपों के दौर से गुजरे हैं, और खासकर तब भी जब वो अपनी तरफ़ से चला कर घोषित करते रहे हैं कि मिसरा ग़ालिब का है और कैफ़ियत अपनी अपनी, या बुल्लेशाह और अमीर खुसरो की प्रेरणा को कभी नहीं नकारा बल्कि आगे बढ़ कर पहले लोगों को बताया। जबकि फ़िल्म उद्योग में अनेकोनेक, अनगिनत ऐसे उदाहरण रोज़ ही मिलते हैं जहां फ़िल्म, कहानी, गीत, दृश्य, स्क्रिप्ट, नृत्य आदि हूबहू उठा लिये जाते हैं मगर राष्ट्रीय दैनिकों में मुख्य-पृष्ठ पे चोरी के रूप मे उछाले नहीं जाते। आज की खबर निश्चित रूप से स्वार्थी तत्वों द्वारा इक निश्चित एजेंडा के तहत उछाला गया जूता है।

शायद ऐसे ही वाकयों और लोगों के लिये गुलज़ार साब ने एक बार लिखा था

कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूंढे जवाब ज़ख्मों के
लोग तो बस सवाल करते हैं!


[नोट : सर्वेश्वर जी की कविता बचपन में पराग में पढ़ी और स्कूल में गुनी-सुनी-सुनाई है। मेरे लिए सर्वेश्वर जी बहुत आदरणीय व्यक्तित्व और साहित्य के अविस्मरणीय हस्ताक्षर रहे हैं। मगर उन लोगों से तकलीफ़ हो रही है जो उनके नाम से इस तरह से जूते उछाल रहे हैं। इसिलिए ये एक रिएक्शन है आज की खबर पर]

- पवन झा