गुलज़ार साब के ७४वें जन्म दिन पर उनके सभी चाहने वालों की ओर से बहुत बहुत मुबारक़बाद!
अगर आप अपनी शुभकामनाएं सीधे गुलज़ार साब तक पहुंचाना चाहते हैं तो यहां पर क्लिक करें
सोमवार, अगस्त 18, 2008
मोरा गोरा अंग लेई ले....- गुलज़ार, एक परिचय
आज गुलज़ार साब का जन्मदिन है, और हिन्द युग्म पर संजीव सारथी ने जन्म दिन की बधाई पेश की है
http://podcast.hindyugm.com/2008/08/blog-post_18.html
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सोमवार, अगस्त 11, 2008
शहरयार गुलज़ार : शहरनामे
शहरयार : गुलज़ार
नया ज्ञानोदय, जून २००८
भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक (जून २००८) में गुलज़ार साब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..
प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई
बड़ी लम्बी सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पांव जमीं पर हैं
समन्दर छोड़ती है , ना समन्दर में उतरती है
ये नगरी बम्बई की..
....
यहां जीना भी जादू है
यहां पर ख्वाब भी टांगों पे चलते हैं
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी मे रक्खे मूंग के दाने
चटखते हैं तो जीभें उगने लगती हैं
यहां दिल खर्च हो जाते हैं अक्सर कुछ नहीं बचता
.....
-----------------------------
मद्रास (चेन्नई)
शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है
ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....
.....
ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है
-----------------------------
कोलकता
कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!
-----------------------------
दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
चारपाई बुनने वाला जब
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे हाथ रख कर
इक हांक लगता था - ’चार पाई. बनवा लो...’
खसखस कि टट्यों में सोये लोग अन्दाज़ा लगा लेते थे.. डेढ़ बजा है..
दो बजते बजते जामुन वाला गुजरेगा
’जामुन.. ठन्डे.. काले जामुन’
-----------------------------
न्यूयार्क
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने
अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये
....
तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं
कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर
......
मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं
मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..
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शहरयार : गुलज़ार
नया ज्ञानोदय, जून २००८
(भारतीय ज्ञानपीठ)
jnanpith.net
नया ज्ञानोदय, जून २००८
भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका नया ज्ञानोदय के पिछले अंक (जून २००८) में गुलज़ार साब की कलम ने पांच शहरों की तस्वीरें उकेरी हैं, कविताओं के माध्यम से शहरों के चरित्र को पेश किया है..
प्रस्तुत हैं शहरनामे के कुछ अंश..
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बम्बई
बड़ी लम्बी सी मछली की तरह लेटी हुई पानी में ये नगरी
कि सर पानी में और पांव जमीं पर हैं
समन्दर छोड़ती है , ना समन्दर में उतरती है
ये नगरी बम्बई की..
....
यहां जीना भी जादू है
यहां पर ख्वाब भी टांगों पे चलते हैं
उमंगें फूटती हैं, जिस तरह पानी मे रक्खे मूंग के दाने
चटखते हैं तो जीभें उगने लगती हैं
यहां दिल खर्च हो जाते हैं अक्सर कुछ नहीं बचता
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मद्रास (चेन्नई)
शहर ये बुजुर्ग लगता है
फ़ैलने लगा है अब
जैसे बूढ़े लोगों का पेट बढ़ने लगता है
ज़बां के ज़ायके वही
लिबास के सलीके भी....
.....
ख़ुशकी बढ़ गयी है जिस्म पर, ’कावेरी’ सूखी रहती है
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कोलकता
कभी देखा है बिल्डिंग में,
किसी सीढ़ी के नीचे
जहां मीटर लगे रहते हैं बिजली के
पुराने जंग आलूदा...
खुले ढक्कन के नीचे पान खाये मैले दांतों की तरह
कुछ फ़्यूज़ रक्खे हैं
...
बेहया बदमाश लड़के की तरह वो
खिलखिला के हंसता रहता है!
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दिल्ली - पुरानी दिल्ली की दोपहर
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
चारपाई बुनने वाला जब
घंटा घर वाले नुक्कड़ से, कान पे हाथ रख कर
इक हांक लगता था - ’चार पाई. बनवा लो...’
खसखस कि टट्यों में सोये लोग अन्दाज़ा लगा लेते थे.. डेढ़ बजा है..
दो बजते बजते जामुन वाला गुजरेगा
’जामुन.. ठन्डे.. काले जामुन’
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न्यूयार्क
तुम्हारे शहर में ए दोस्त
क्यूं कर च्युंटियों के घर नहीं हैं
कहीं भी चीटियां नहीं देखी मैने
अगरचे फ़र्श पे चीनी भी डाली
पर कोइ चीटीं नज़र नहीं आयी
हमारे गांव के घर में तो आटा डालते हैं, गर
कोइ क़तार उनकी नज़र आये
....
तुम्हारे शहर में गरचे..
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड़ हैं
पौधे हैं, फूलों से भरे हैं
कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराये उन पर
......
मेरा गांव बहुत पिछड़ा हुआ है
मेरे आंगन के बरगद पर
सुबह कितनी तरह के पंछी आते हैं
वे नालायक, वहीं खाते हैं दाना
और वहीं पर बीट करते हैं
तुम्हारे शहर में लेकिन
हर इक बिल्डिंग, इमारत खूबसूरत है, बुलन्द है
बहुत ही खूबसूरत लोग मिलते हैं
मगर ए दोस्त जाने क्यों..
सभी तन्हा से लगते हैं
तुम्हारे शहर में कुछ रोज़ रह लूं
तो बड़ा सुनसान लगता है..
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शहरयार : गुलज़ार
नया ज्ञानोदय, जून २००८
(भारतीय ज्ञानपीठ)
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