गुरुवार, मार्च 26, 2009

ऑस्कर पहुंचा बोस्किआना (Oscar Arrived at Boskyana)

गुलज़ार साब ऑस्कर समारोह में नहीं जा पाये मगर अब परम्परा के मुताबिक गुलज़ार साब की ऑस्कर ट्रॉफी सोमवार को उनके घर बोस्किआना पहुंच गई है ।

Picture Courtesy : Meghna Gulzar
[साभार : मेघना गुलज़ार - ऑस्कर के आगमन पर ये खूबसूरत तस्वीर बिटिया मेघना के द्वारा ली गई है । शुक्रिया मेघना! इस लम्हे को हम सब के साथ बांटने के लिये]


बोस्किआना में पहले ही ट्रॉफियों का इक भरा पूरा परिवार, अपने इस नवीनतम सदस्य के लिये जगह बनाने में लग गया है!

बुधवार, मार्च 11, 2009

होली के रंगों में एक रंग : Holi Mubaarak!

होली के रंगों में एक रंग और : गुलज़ार साब की एक त्रिवेणी जो आज के दैनिक भास्कर के होली विशेष में शामिल हुई है


ज़रा पैलेट सम्भालो रंगोबू का
मैं कैनवास आसमां का खोलता हूं

बनाओ फिर से सूरत आदमी की!


साथ में एक और रंग बोनस में.. ईद के चाँद पर होली का रंग!

जहां नुमा एक होटल है नां...
जहां नुमा के पीछे एक टी.वी. टॉवर है नां...
चाँद को उसके ऊपर चढ़ते देखा था कल!

होली का दिन था
मुंह पर सारे रंग लगे थे
थोड़ी देर में ऊपर चढ़ के
टांग पे टांग जमा के ऐसे बैठ गया था,
होली की खबरों में लोग उसे भी जैसे
अब टी.वी. पर देख रहे होंगे!!





Source : Dainik Bhaskar, March 10, 2009, Page 17 link

रविवार, मार्च 08, 2009

कितनी गिरहें खोली हैं मैने :[Gulzar saab's Poem on Women’s Day]

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर गुलज़ार साब की एक बेहद संवेदनशील रचना .. कितनी गिरहें खोली हैं मैने, कितनी गिरहें अब बाकी हैं.. ये रचना गुलज़ार साब ने सबसे पहले जयपुर में सुनाई थी.. और बाद में भुपेन्द्र-मिताली के साथ उनके एलबम "चाँद परोसा है" में मिताली की आवाज़ में प्रस्तुत हुई।


कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

पांव मे पायल, बाहों में कंगन, गले मे हन्सली,
कमरबन्द, छल्ले और बिछुए
नाक कान छिदवाये गये
और ज़ेवर ज़ेवर कहते कहते
रीत रिवाज़ की रस्सियों से मैं जकड़ी गयी

उफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

अब छिलने लगे हैं हाथ पांव,
और कितनी खराशें उभरी हैं
कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी रस्सियां उतरी हैं

कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं

अंग अंग मेरा रूप रंग
मेरे नक़्श नैन, मेरे भोले बैन
मेरी आवाज़ मे कोयल की तारीफ़ हुई
मेरी ज़ुल्फ़ शाम, मेरी ज़ुल्फ़ रात
ज़ुल्फ़ों में घटा, मेरे लब गुलाब
आँखें शराब
गज़लें और नज़्में कहते कहते
मैं हुस्न और इश्क़ के अफ़सानों में जकड़ी गयी

उफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

मैं पूछूं ज़रा, मैं पूछूं ज़रा
आँखों में शराब दिखी सबको, आकाश नहीं देखा कोई
सावन भादौ तो दिखे मगर, क्या दर्द नहीं देखा कोई
क्या दर्द नहीं देखा कोई

फ़न की झीनी सी चादर में
बुत छीले गये उरियानि के
तागा तागा करके पोशाक उतारी गयी
मेरे जिस्म पे फ़न की मश्क़ हुई
और आर्ट-कला कहते कहते
संगमरमर मे जकड़ी गयी

उफ़्फ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

बतलाए कोई, बतलाए कोई
कितनी गिरहें खोली हैं मैने
कितनी गिरहें अब बाकी हैं