रविवार, अक्टूबर 07, 2007

नो स्मोकिंग : फिर तलब, है तलब [No Smoking : Music Review]

[वैधानिक चेतावनी : नो स्मोकिंग का संगीत स्वास्थ्य के लिये हानिकारक साबित हो सकता है.. बार बार की रिवाईंडिंग आपकी उंगलियों को नुकसान पहुंचा सकती है.. और संगीत का हर कश आपको इस एल्बम का तलबगार बना सकता है ]


बीड़ी की आग अभी तक बुझी नहीं थी, कि गुलज़ार साब विशाल के साथ सिगरेट लेकर हाज़िर हो गये हैं... नो स्मोकिंग का संगीत आ गया है.. हालांकि हर गीत सिगरेट विरोधी स्वर लिये हुए है मगर यकीन मानिये इसके संगीत के एक एक कश में बहुत नशा है.. एक बार सुनने के बाद फिर से सुनने कि तलब लगती है.. बहुत अल्हदा किस्म की फ़िल्म लग रही है नो-स्मोकिंग और संगीत ने भी इस धारणा को और मजबूत बना दिया है... एल्बम के सारे गीत फ़िल्म की नायिका (सिगरेट.. शायद खलनायिका भी कह सकते हैं) और नायक जौन के उसके मोहपाश में बंधे होने की दास्तां को बयां करते हैं...
सिगरेट की खौफ़नाक़ खूबसूरती के मंज़र बहुत खूबी से इस एलबम के गीतों में उकेरे गये हैं
गुलज़ार साब ने अपने गीतों मे सिगरेट पीने वालों की ज़िन्दगी के एक्स-रे, सर्जरी और पोस्ट-मार्टम कविताई अन्दाज़ में पेश किये हैं..


एल्बम का पहला गीत अदनान सामी ने गाया है और क्या खूब गाया है.. सिगरेट की सुलगन और ज़िन्दगी की क़तरा कतरा पिघलन को, उलझन को डूब के गाया है

फिर तलब, है तलब...
बेसबब, है तलब
शाम होने लगी है, लाल होने लगी है

जब भी सिगरेट जलती है, मैं जलता हूं
आग पे पाँव पड़ता है, कमबख़्त धुएं में चलता हूं

"फिर किसी ने जलाई, एक दिया सलाई
आसमां जल उठा है, शाम ने राख उड़ायी"

नायक के अन्दर की धीमी धीमी सुलगन, और धीरे धीरे ही राख में तब्दीली को गुलज़ार अपने ही अन्द्दज़ में बहुत खूबी से कह जाते हैं

"उपले जैसे जलता हूं, कम्बख्त धुएं में चलता हूं"

और विजुअल कन्स्ट्रक्शन देखिये
"लम्बे धागे धुएं के सांस सिलने लगे हैं
प्यास उधड़ी हुई है, होठ छिलने लगे हैं
शाम होने लगी है, लाल होने लगी है" (ज़िन्दगी की शाम, खून की लाली?)

गीत सुनने के बाद ये अन्दाज़ा लगाना नामुमकिन हो जाता है कि गीत का सबसे मजबूत पक्ष अदनान की गायकी में है, विशाल की शानदार कम्पोजिशन में या गुलज़ार साब के शब्दों मे.. तीनों का मेल एल्बम को बेहतरीन शुरुआत देता है. गीत बाद मे सुनिधि की अवाज़ में भी है, और वो गीत भी बहुत खूबसूरत बन पड़ा है.. मगर अदनान के सामने थोड़ा फीका सा लगता है..

अगला गीत "फूंक दे" भी दो बार है, रेखा भारद्वाज और सुखविन्दर सिंह के स्वरों में.. यकीन मानिये दोनो वर्शन दो अलग अलग गीतों सा मज़ा देते हैं.. रेखा का वर्शन रस्टिक फ्लेवर में है.. और गुलज़ार साब के बोल सिगरेट के ज़हर के अपने ही तरीके से बयां करते हैं

"हयात (ज़िन्दगी) फूंक दे, हवास (रूह) फूंक दे
सांस से सिला हुआ लिबास (शरीर) फूंक दे.. "

"पीले पीले से जंगल में बहता धुआं
घूंट घूंट जल रहा हूं, पी रहा हूं पत्तियां" (तम्बाक़ू की)


कश लगा एल्बम का अगला गीत है.. सुखविन्दर, दलेर मेहंदी और स्वयं विशाल भारद्वाज की आवाज़ में कव्वालीनुमा गीत है... तीनों गायकों का तालमेल अच्छा बन पड़ा है.. गीत अल्बम को मोनोटोनस होने से बचाता भी है, फिर भी एल्बम क सबसे कमजोर गीत है

"ये जहान फ़ानी है...बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा"


इसके बाद बारी आती है एल्बम के सबसे खूबसूरत लिखे गये गीत ’एश-ट्रे’ की.. विशाल की कम्पोसिशन गीत के मूड के मुताबिक है और और नये गायक देवा सेन गुप्ता इस मुश्किल से गीत को सफलता से निभा गये हैं...

"बहुत से आधे बुझे हुए दिन पड़े हैं इसमे
बहुत से आधे जले हुई रात गिर पड़ी हैं
ये एश-ट्रे भरती जा रही है"

बहुत खूब!


फिर तलब... है तलब...
इस तलब के लिये बहुत बहुत शुक्रिया..
विशाल को, गुलज़ार साब को, और अनुराग कश्यप को, जिन्होने बिकाऊ संगीत के बजाय ऐसा संगीत चुनने में हिम्मत और ईमानदारी दिखायी जो स्क्रिप्ट के अनुरूप है..


और मैं फिर से री-वाईण्ड कर रहा हूं...

मंगलवार, अक्टूबर 02, 2007

सचिन देव बर्मन स्मृति [मेरे पिताजी का बोया पौधा गुलज़ार ] Pancham Remembers

आज सचिन देव बर्मन जी का १०१वां जन्मदिवस है. गुलज़ार साब ने सचिन दा के साथ ही गीतकार के रूप में शुरुआत की थी... प्रस्तुत है इस अवसर पर पंचम का 80 के दशक का लिखा एक आलेख "मेरे पिताजी का बोया पौधा - गुलज़ार"



मेरे पिताजी का बोया पौधा - गुलज़ार

आज से लगभग बीस साल पहले की बात है. एक दिन मेरे पिताजी (स्व सचिन देव बर्मन) मुझे अपने साथ 'मोहन स्टुडिओ' ले गये, जहां बिमल-दा की फ़िल्म सुजाता की 'सिटिन्ग' थी. मैं वहां के लोगों के लिये बिल्कुल नया था,
इसलिये पिताजी ने मुझे बिमल-दा की यूनिट के सभी लोगों से मिलाया. उन्हीं में से एक थे बिमल-दा के असिस्टेन्ट - गुलज़ार

उनके नाम से मैने समझा कि शायद वे किसी मौलवी के रिश्तेदार होंगे, लेकिन जब उनका असली नाम पढा, तब मैने जाना कि वास्तव में वो सिख हैं पर बाल कटवा दिये हैं.

तब से ही हम लोगों की जान पहचान हो गयी.

उन दिनो मैं पिताजी का असिस्टेन्ट हुआ करता था. मेरे कोइ खास दोस्त नहीं थे, इसलिये गानों की सिटिन्ग खत्म होने पर मैं सीधा गुलज़ार के पास चला जाता था. उन दिनों वे जुहू में रघुनाथ झालानी वगैरह के साथ रहते थे.
वहीं जाकर मैं उन सबके साथ बैठता था. वहां हम दोनो की बात-चीत सिर्फ़ फ़िल्मों पर ही हुआ करती थी. अच्छी बात ये थी कि हम लोग सिर्फ़ काम की बातें किया करते थे, फ़ालतु बात तो शायद कभी की ही नहीं. उन बैठकों में
मुझे फ़िल्म कला के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला.

फिर आयी फ़िल्म 'बन्दिनी'. गुलज़ार ने इसमे मेरे पिताजी के संगीत निर्देशन में एक बडा खूबसूरत गीत लिखा 'मोरा गोरा अंग लई ले'. लेकिन चुंकि उस वक्त पिताजी के साथ पहले से ही कुछ दूसरे गीतकारों की टीम बन चुकी थी, इसलिये गुलज़ार को उनके साथ काम करने का उतना मौका न मिल सका, जितना की उन्हें वास्तव में मिलना चाहिये था

तभी से मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि अगर कभी मैं संगीत निर्देशक बना, तो इनके साथ ज़रूर काम करूंगा.

बाद में मैं संगीत-निर्देशक बन गया, और फिर आयी फ़िल्म 'परिचय', जिसमे हम दोनो पहली बार एक-दूसरे से गीतकार-संगीतकार के रूप में मिले

एक दिन की बात है. मैं किसी फ़िल्म की 'बैक-ग्राउन्ड म्युजिक' के सिल-सिले में 'राज-कमल स्टुडिओ' गया हुआ था. वहां गुलज़ार भी थे.. उन्होने मुझ-से कहा...
"पन्चम! एक गीत का मुखडा है, देखो कैसा लगता है!"

मैने कहा "लिखवा दें"

उन्होने वह मुखडा मुझे लिखवाया. जादू था उन शब्दों में ! मैं बिल्कुल चमत्क्रत सा रह गया था उसे सुन-कर! मेरे मन में उसी वक्त यह इच्छा हुई की यह कह दूं कि एक संगीतकार को जितने अच्छे बोल, 'मूड' और 'एक्सप्रेशन्स' मिलते हैं, वह उन्हें उतनी ही अच्छी तरह से स्वर-बद्ध करने की कोशिश करता है. लेकिन मैं कुछ बोला नही.

वह कहने लगे, "अच्छा! मैं चलता हूं."

इस पर मैने कहा, "नहीं! ज़रा दो मिनट ठहरिये"

तब उन्होने देखा की मैं किस तरह गाने कम्पोस करता हूं. लगभग पांच मिनट तक सोचने के बाद मैने उस मुखडे को सुर में ढालने की कोशिश की. लेकिन कोइ खास बनती नज़र नहीं आयी.

तब उन्होने कहा, "चलता हूं, परसों मिलेंगे"

मैं रास्ते भर उसी मुखडे के बारे में सोचता हुआ, उसे तरह तरह के सुरों में गुन-गुनाता हुआ घर लौटा. और उसी रात अपनी फ़िल्म की 'बैक-ग्राउन्ड म्युजिक' खत्म करने के बाद मैं तुरन्त गुलज़ार के घर गया. जब वे बाहर आये,
मैं उन्हें सीधे अपनी कार के अन्दर ले आया. कार में एक 'टेप-रेकोर्डर' लगा हुआ था. उस्में मैने वही मुखडा - जो उन्होने सुबह लिखवाया था - अपनी आवाज़ में थोडी बहुत म्युजिक के साथ रेकार्ड कर लिया था.

मैने टेप चला दिया. गीत बजने लगा

मुसाफ़िर हूं यारों
ना घर है, न ठिकाना
मुझे चलते जाना है
बस चलते जाना

उसे सुनकर वे बहुत खुश हो गये और बोले "पन्चम! गाना बहुत खूबसूरत बना है. इसे परसों तक रेकार्ड करना है."

मैने सोचा कि चलो मेरी मेहनत सफल हुई. लेकिन साथ ही एक परेशानी भी आ खडी हुई. ईश्वर की दया से उन दिनों मैं काफ़ी 'बिज़ी' संगीतकार हो गया था. उसी बीच बहुत सारे काम भी निपटाने थे. इसलिये मैं सोचने लगा कि परसों तक कैसे रिकार्ड करूंगा ? वक्त ही नहीं है. बडी मुश्किल होगी.

अपनी परेशानी ज़ाहिर करने के लिये मैं एक मिनट चुप रहने के बाद उनसे बोला,
"गुलज़ार! तूने मुखडा तो बहुत अच्छा दिया, लेकिन अंतरा बहुत बकवास कर दिया."

यह सुनते ही वे हंस पडे.

उस दिन से हम दोनो काम की दोस्ती में बंध गये. अब हम जब कभी काम के लिये बैठते हैं, तो काम सोचकर नहीं करते हैं. बल्कि उसे 'एन्जाय' करते हैं. अब हम दोनो की आपस में ऐसी 'ट्यूनिंग' हो गयी है के हमेशा यही होता है कि कभी-कभी पहले वे कुछ बोल लिख देते हैं, और उनके 'एक्सप्रैशन्स' को समझ कर उसी के हिसाब से मैं धुन बनाता हूं; और कभी कभी मैं पहले धुन बनाता हूं और उसके 'एक्सप्रैशन्स' के अनुसार वे बोल लिख देते हैं.

लेकिन बात हमेशा बढिया बनती है!

वे कभी भी 'सिटिंग' के लिये कोइ टाइम वगैरह 'फ़िक्स' करके नहीं आते हैं. अपना घर जानकर, अधिकार के साथ, जब जी चाहे चले आते हैं. ऐसे समय में मैं उनसे कहता हूं, "मुझसे काम करवाने आये हो?"

जवाब में वे मुस्कराकर कहते हैं, "पागल हो गये हो ?, मैं तुमसे नहीं, गोरखे से काम लेने आया हूं."

मुझे अकसर वे प्यार से 'गोरखा' कह कर भी पुकारते हैं.

अब तो हम दोनो की एक टीम बन गयी है. अब उन्हैं मेरे संगीत-निर्देशन में फ़िल्म 'गोलमाल' के लिये लिखे गये गीत - 'आने वाला पल जाने वाला है...' - पर 'फ़िल्मफेयर पुरस्कार' मिला तो उस वक्त मुझे लगा कि आज मेरे स्वर्गीय पिताजी का बोया पौधा कितना विशाल हो गया है! जो काम उनसे अधूरा छूट गया था, शायद वह मेरे हाथों पूरा हो रहा है - यह सोचकर खुशी से मेरी आंखें भर आयी थी.

हालांकि, हम दोनों ने बहुत सारी फ़िल्मों में साथ-साथ काम किया है, लेकिन एक बात आज तक मेरी समझ में नहीं आयी है. जब कभी मैं अपने दोस्तों को अपने 'रिकार्ड' किये हुए कुछ ताजे गीत सुनाता हूं, और उनमें से अगर एक भी गीत गुलज़ार का होता है, तो ना जाने कैसे वे लोग तुरंत 'पिन-प्वाइन्ट' कर देते हैं कि यह गीत 'गुलज़ार-टाइप' का है, ज़रूर गुलज़ार का लिखा होगा!

यह 'गुलज़ार-टाइप' क्या है? इसका क्या राज़ है? सच पूछिये तो यह बात मुझे भी नहीं मालूम. जब दोस्तों से पूछता हूं कि आखिर ये 'टाइप' क्या है, तो वे कहते हैं कि ये तो सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है, बयान नहीं किया जा सकता.

शायद ये चमत्कार गुलज़ार के शब्दों क है! उनके अनोखे 'एक्सप्रैशन्स' का है!

अन्त में , एक बात अपनी तरफ़ से और लिखना चाहूंगा, हालांकि, गुलज़ार बहुत पढे-लिखे, समझदार और काबिल गीतकार हैं - लेकिन उनका स्वभाव बिल्कुल बच्चों जैसा है.

राहुल देव बर्मन

रविवार, सितंबर 30, 2007

Ikiru ka Anand - How I saved my castle

Sep.30.2007
First of all, let me tell you I am not a film reviewer.. I dont want to be one as I believe all the reviewers have their own biases and preferences like any other audience watching the film. I also believe most of the great films have boring reviews and sometimes the greatness of a film is beyond the reach for many of the reviewers.. of course all badly made films provide much better opportunity to have the most entertaining reviews on them..
On the following lines, you will not find a review but a reaction and its a reaction to a comment I read sometime back, by a person I admire to a great extent Javed Siddiqui saab. A comment that set me to a journey to find answers and made me to actually review a film.
It was about a film that is one of the most inspiring one of my life so far.. He once quoted “Hrishikesh Mukherjee’s Anand was inspired from Kurosawa’s Ikiru”.. Reading the line caused a mild heart attack to me.. Anand has been so dear to me for its characters, screenplay, dialogs, direction, acting, music.. for everything it had.. It is The Film which laid foundation for my castle of admiration for people like Hrishikesh Mukherjee, Gulzar, Bimal Dutt, NC Sippy, Amitabh Bachchan and The Cinema ofc.. a movie I have seen hundreds of times and can still watch it for all my life.. “Waise bhi Meri judwaan hai ye.. hum dono 1971 ki paidaaish hain”… When 20-25 years later you come to know from a respectable name that it was not original, you are bound to find a few cracks in the castle.. and the cracks got wider when a reliable friend confirmed me that Anand was a remake of Ikiru..

Ikiru means "to live"
To Live
To save my castle I started the hunt.. I could find the DVD of Rashomon in the process but not of Ikiru..but thanks to the magical glove of internet, I could finally get the film a few months back…and it was the beginning of the next challenge.. to find time (with time I mean dedicated quality time for film viewing, which is very very difficult to people like me who runs a small company with different clients from different time zones US East Coast, West Coast, India (subah se lekar shaam tak, shaam se lekar raat tak.. raat se lekar subah tak, subah se phir shaam tak.. bas kaam karo, bus kaam karo) and above it a demanding 3.5 year old son ..)… So only after a wait of about 4 months I could find an opportunity when I got a chance to travel and I didn’t missed the opportunity.. With the help of my laptop (what a great asset to have) and a set of headphones, I got transmitted in to the world of Ikiru… and a wonderful world it was…
[Spoilers Ahead.. not many and am sure not to the extent of ruining the chance of your future watching]
Ikiru (To Live) is a simple and heartwarming tale of the main protagonist of the film Mr. Watanabe, a widower living with his son and daughter-in-law (To what I have seen of Mr. Kurosawa, This hero is quite an unspectacular ordinary human-being in comparison to the heroes of Rashomon or Seven Samurai).. Leading a robotic life in a government public works department doing absolutely nothing.. He is as good as a dead man, just killing his time and the most important job he does (as per the dialogs) is to keep his chair warm.. Just after introductory scene, you come to know that Mr. Watanabe is representing the system how Japan functions.. whole system is dead like him, killing time and doing nothing.. a group of female petitioners from a basti files a proposal to office to develop a public and park playground for their children instead of polluted water pool, and they are sent from one department to another, from there to another in a masterly crafted sequence… when they reach Watanabe Seat, the audience is made aware that something unusual has happened today.. Mr. Watanabe is not on the seat for the first time.. Actually he is meeting the doctor and faces the fact that he is going to die soon due to a cancer.. He has at the most 3 months to live…
Watanabe with Novelist3 months to live and he want to LIVE now… A brilliantly crafted scene that takes you back to his past and you know how and why he spent his last thirty years working like a robot and doing nothing, for his son.. His relationship (or the failure of it) with his son is brilliantly handled and Mr. Watanabe realizes that he has been a complete failure on both family and office fronts.. and the failure of relationship with his family also poses a big question, how and where is he going to find happiness for the rest of life.. he has money but no idea how to spend it to Live.. He visits a bar, interacts with a stranger novelist (very interesting interaction) who takes him for gambling and dance bar.. The dance bar scene provides another great moment when Watanbe sings “Life is short.. fall in love”
In search of Life To Live, he starts interacting with a subordinate girl in his office, who had earlier nicknamed him as “The Mummy”.. Watanbe want her to help him to live.. he is jealous of her, for her energy and vibrancy . The family (Son and D.I.L) suspects him of having illicit relationship and thinks that he is spending all the money on the girl.. but the duo have a different kind of relationship.. Still in the company of the girl, Watanbe tries to extract too much out of her, in too short span of time.. It fails eventually but finally leads to an answer of his search, how would he like to spend his rest of life.. we are just two-third into the film and we find Mr. Watanbe is no more. Rest of the film takes the film to another interesting direction where people from family and government office are gathered to pay tributes to Mr. Watanbe and they start discussing all the changes in his behavior, all the gossips surrounding him in last few months and the mystery of his death..Kind of a postmortem of his life..
In the long long discussion during the homage, the director discuss the events of last few months of Watanbe thru the eyes of his co-workers and associates.. The discussions, gossiping, arguments, counter arguments and fight (like a parliamentary session), lead them to a realization the Mr Watanbe indeed achieved some thing in life and HE WILL LIVE ON.. the Climax is just fantastic will definitely leave you with a happy heart yet moist eyes.. In the end you feel really satisfied; you have seen a good powerful film…
and the best feeling for me was my Castle is saved…

(In case you are still reading and have enough strength left to read on)
honestly I never wanted to tell you the above story specially If you have not seen the film but later I realized I have to, to compare it with Anand… but I am sure the above paragraphs wont spoil the pleasure of watching this film.. Now coming back to Siddiqui saab’s comment, I am not sure what made him comment that Anand is based on Ikiru.. Either he has not seen any of the two films and made his comment on what he has heard from some other sources.. ofc There is a similarity, infact a very thin line of similarity that the main protagonist is going to die soon and he knows about it.. The subsequent events to this realization in initial reels are handled totally differently in the two films.. Watanbe and Anand are poles apart as a character. You feel sorry for Watanbe all throughout the film, but never ever for Anand, as he never lets you to do so..
Ikiru has a different class.. to me its not a single film but three brilliant films for the price of one.. It has three different segments connected yet independent that can inspire three different film makers to make three different films.. Infact I find films like Chhoti Chhoti Baatein (Moti Lal’s first film as director and eventually turned out to be his last film) and Annadata (OmPrakash) are inspired by the middle segment.. Another film was Mahesh Bhatt’s Kabza which could be inspired from another segment.. Baghbaan too.. much more than Anand.. but none of the other inspired ones could get any closer to Ikiru or Anand..
Talking of Ikiru and Anand, it could be possible that Hrishi da has seen the film, yet he created a totally different world of Anand. Anand as a person has infact no similarity to Watanbe and poles apart in terms of vibrancy and flamboyance.. It still is the unique most character of all the films I have seen so far.. Infact the time spent with Ikiru has been instrumental in growing my admiration for Anand and its crew many more times.. It will Live On.. Anand Mara Nahin, Anand Marte Nahin..
and Thanks Siddiqui saab for introducing me to Ikiru!!!
On that Note of Joy (Anand), One question that always troubles me is

"Anand had a changeover in persona only after he realizes he is going to die soon? or he was the same happy Anand all though out his life.. is it the news of unavoidable death arriving soon made him The Anand we love and admire?


I can't afford to hate people. I don't have that kind of time - Ikiru


[Originally published on passionforcinema.com in Sep 2007]


शुक्रवार, सितंबर 28, 2007

मीरा : विचार से पर्दे तक का सफ़र [ Gulzar on the making of Meera ]

मीरा : विचार से पर्दे तक का सफ़र
गुलज़ार

(फ़िल्म पूरी होने से पूर्व १५ दिसम्बर १९७५ को लिखा आलेख, राधाकृष्ण पर प्रकाशित 'मीरा' से साभार)

प्रेम जी आये एक रोज़ । सन १९७५ की बात है । साथ में बहल साहब थे - श्री ए.के. बहल । प्रेमजी ने बताया कि वह 'मीरा' बनाना चाहते हैं ।

बस, सुन के ही भर गया ! यह ख़याल कभी क्यों नहीं आया?
उस 'प्रेम दीवानी' का ख़याल शायद सिर्फ़ प्रेम जी को ही आ सकता था ।

बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेम जी को 'दीवान-ए-ग़ालिब' ज़ुबानी याद है । ऐसी याददाश्त भी किसी दूसरे की नहीं देखी । उर्दू अदब के सिर्फ़ शौक़ीन नहीं, दीवाने हैं; और अन्ग्रेज़ी में कल तक आख़िरी किताब कौन-सी छपी है,
बता देंगे, और यह भी कि:
'मार्केट में अभी आयी नहीं । उसका 'थीम' कुछ ऐसा है...।'

किताबें ज़ुबानी याद रखने की उन्हें आदत-सी हो गयी है । ऐसे प्रोड्यूसर के साथ काम करना वैसे ही ख़ुशक़िस्मती की बात है, और फिर 'मीरा' जैसी फ़िल्म पर!

अगस्त १९७५ में 'मीरा' बनाने का फ़ैसला तय पा गया । १४ अक्तूबर सन १९७५ को 'मीरा' के मुहूर्त का दिन निकला । दिन दशहरे का था ।

यह ख़याल भी प्रेम जी का ही था कि मुहूर्त लताजी से करवाया जाये । आज की 'मीरा' तो वही हैं!

प्रेम जी ख़ुद बडे शर्मीले क़िस्म के इंसान हैं । बडे से बडा काम करके भी खुद पर्दे के पीछे रहते हैं । यह ज़िम्मेदारी उन्होने मुझे सौंप दी।

लता जी मुहूर्त के लिये तो राज़ी हो गयीं, लेकिन उन्होने फ़ौरन हमारे कान में यह बात भी डाल दी कि वह इस फ़िल्म के लिये गा नहीं सकेंगी। मौक़ा और वक़्त ऐसा था कि बहस करना मुनासिब न समझा, सो मुहूर्त हो गया, लेकिन लगा कि कहीं एक सुर कम रह गया है!

भूषण जी दिल्ली से मीरा पर किताबों का सूटकेस भरकर ला चुके थे, और उन्हें पढना, उलटना-पलटना शुरू कर चुके थे। किताबें बेहिसाब थीं, और मीरा कहीं भी नहीं! यह राम-कहानी आप भूषण जी की ज़ुबानी ही सुनियेगा । भूषणजी की याददाश्त भी कमाल की है; उन्हें जिल्द समेत किताब चट कर जाने की आदत है। और कहीं इतिहास की चर्चा छिड जाये तो बता देंगे - मोहन-जो-दडो में चीटियों के बिल कहां कहां पर थे!

इतनी सारी उलझा देने वाली बातों में से , ज़ाहिर है, कोई एक रास्ता अपनाना ज़रूरी था । छोटी-मोटी समझ-बूझ के अनुसार जो चुना वही आप फ़िल्म में देखेंगे । लेकिन इस फ़िल्म की आप-बीती भी मीरा के संघर्ष से किसी तरह कम नहीं ।

सन १९७६ में स्क्रिप्ट तैयार हुई और जून १९७६ से शूटिंग शुरू होनी थी । उम्मीद थी, आठ-दस माह में फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो जायेगी ।

'मीरा' के 'पति' की तलाश में उतनी ही दिक्कत हुई जितनी कि हेमा को अपनी ज़िन्दगी में... या कहिये, हेमा की मम्मी को बेटी का वर ढूंढने में हुई हो, या हो रही हो! कोई हीरो यह रोल करने को तैयार नहीं था । किस-किस की
ड्योढी पर शगुन की थाली गयी, कहना मुश्किल है । ख़ुद कृष्ण होते तो शायद... । आख़िरकार अमिताभ मान गये ।

१९ जून १९७६ को शूटिंग का पहला दिन था । इसीलिए मई में 'मेरे तो गिरधर गोपाल' की रिकार्डिंग रखी गयी थी । सबसे पहले इसी गाने को फ़िल्माना था । लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को हम लता जी की मर्ज़ी बता चुके थे; उन्हें फिर भी यक़ीन था कि वे लता जी को मना लेंगे। रिकार्डिंग से कुछ दिन पहले लक्ष्मीजी ने लताजी से बात की । और उन्होने फिर इंकार कर दिया । लक्ष्मीजी दुविधा में पड गये । मुझसे कहा कि आप ख़ुद एक बार और लताजी से कहकर देखिये । मैंने फिर बात की लताजी से । उनके ना गाने की वजह मुझे बहुत माक़ूल लगी । उन्होने बताया कि मीरा के दो प्राइवेट एल.पी. वह गा चुकी हैं और जिस श्रद्धा के साथ उन्होने मीरा के भजन गाये, उसके बाद अब वह किसी भी 'कमर्शियल' नज़रिये से मीरा के भजन नहीं गाना चहतीं। मैंने उनका फ़ैसला लक्ष्मी-प्यारे तक पहुंचा दिया, और दरख्वास्त की कि वह किसी और आवाज़ को चुन लें।

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने फ़िल्म छोड दी। इस फ़िल्म में म्युज़िक देने से इंकार कर दिया।

हमारे पास कोई रास्ता नहीं था। फ़िल्म का सेट लग चुका था । प्रेमजी बहुत परेशान थे, लेकिन उनके हौसले का जवाब नहीं; बोले:
'मीरा सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं है.. एक मक़सद भी है.. बनायेंगे ज़रूर!'

गीतों को फ़िलहाल छोडकर हमने १९ जून १९७६ से फ़िल्म की शूटिंग शुरू कर दी । फ़िल्म में विद्या सिन्हा का प्रवेश अचानक हुआ । उस छोटे से रोल के लिये उसका राज़ी हो जाना मुझ पर एक निजी एहसान था । शायद दूसरी कोई हीरोइन उसके लिये तैयार न होती । पहली शूटिंग हमने हेमा और विद्या के साथ की, और गौरी के साथ - जिसने ललिता का रोल किया है ।

दो दिन में यह सेट ख़त्म हो गया।

एक बार फ़िर 'वर' की तलाश शुरू हुई । 'मीरा' के लिये म्युज़िक डायरेक्टर भी चाहिये था । 'पंचम', यानी आर.डी. बर्मन, मेरे दोस्त हैं । उनसे पूछा, वह भी तैयार न हुए। लता जी से ना गवा कर वह किसी वाद-विवाद या कंट्रोवर्सी में नहीं पडना चाहते थे।

इस नुक़्ते को लेकर किसी तरह के वाद-विवाद की बात मेरी समझ में भी नहीं आती थी । अब सभी तो दिलीप कुमार को लेकर फ़िल्में तो नहीं बनाते! और अगर दिलीप साब किसी फ़िल्म में काम ना करें तो... क्या प्रोड्यूसर फ़िल्में बनाना छोड दें, या डायरेक्टर डायरेक्शन से हाथ खींच ले? मुझे लगा - उन सब के 'कैरियर' सिर्फ़ एक आवाज़ के मोहताज हैं । उस आवाज़ के सहारे के बग़ैर कोई एक क़दम भी नहीं चल सकता । बहरहाल यह मसला म्युज़िक डायरेक्टर का था । कुछ हफ़्ते तो ऐसी परेशानी में गुज़रे कि लगता था, यह फ़िल्म ही ठप हो जायेगी । तभी फ़िल्म के आर्ट डायरेक्टर देश मुखर्जी ने एक दिन एक नाम सुझाया । और वह नाम फ़ौरन दिल-दिमाग़ में जड पकड गया - पंडित रविशंकर !

पंडितजी बहुत दिनों से अमरीका में रहते थे । हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में म्युज़िक देना तो वह कब का छोड चुके थे!
पता-ठिकाना मालूम करना भी दूर की बात लगी, और फिर अगर वो मान भी जायें तो इतने गाने कब और कैसे रिकार्ड होंगे ? हर गाने कि रिकार्डिंग के लिये तो उन्हें अमरीका से बुलवाया नहीं जा सकता । फिर भी, एक चिराग़ जला तो सही... चाहे बहुत दूर ही सही ।

पांच-सात दिन की कोशिशों के बाद हम दोनों के दोस्त हितेन चौधरी ने पंडितजी का फ़ोन नम्बर लाकर दिया, और बतलाया कि फ़लां तारीख़ को वह तीन दिन के लिये इस नम्बर पे लंदन आकर ठहरेंगे । चाहें तो उनसे बात कर लीजिये । चौधरी साहब से हमने अनुरोध किया 'आप परिचय करवा दीजिये, हम बात कर लेंगे' ।

पंडित जी लंदन में थे । मैंने बात की ।

आवाज़ अगर शख्सियत से ढंके पर्दों को खोल कर कोई भेद बता सकती है, तो मैं कह सकता हूं - बातचीत के इस पहले मौक़े पर्ही मुझे उम्मीद हो गयी थी कि पंडित जी मान जायेंगे । इतनी बडी हस्ती होते हुए भी उनकी आवाज़ में बला की नम्रता थी । उनकी शर्त बहुत सादा और साफ़ थी - ' मुझे फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुना दीजिये । अच्छी लगी तो ज़रूर संगीत दूंगा'

अगले दिन ही पंडित जी न्यूयार्क जा रहे थे । प्रेमजी ने फ़ौरन फ़ैसला कर लिया : 'आप न्यूयार्क जाइये और हितेन दा को साथ ले जाइये । आप जो मुनासिब समझें, वह फ़ैसला कर आइये ।'

हितेन-दा पुराने दोस्त हैं, मान गये । ३१ जुलाई १९७६ को मैं न्यूयार्क में था । लेकिन पंडित जी न्यूयार्क में नहीं थे।

३ अगस्त को पंडित जी न्यूयार्क लौट आये । उसी शाम उनसे मुलाक़ात हुई । मुलाक़ात के आधे घंटे बाद ही मैंने स्क्रिप्ट सुनानी शुरू कर दी । पूरे दो घंटे चालीस मिनट लगे मुझे स्क्रिप्ट सुनाने में । उसके तीन मिनट बाद ही
'मीरा' को म्युज़िक डायरेक्टर मिल गया !

बाकी सारी बातें हितेन-दा ने तय करा दीं ।

लताजी से जो बात हुई थी मैंने पंडित जी को बतला दी । उन्हें भी अफ़सोस ज़रूर हुआ कि लता जी गातीं तो अच्छा होता ।

लता जी उन दिनों वाशिंगटन में थीं । दो दिन बाद मेरा वाशिंगटन जाना हुआ तो मैंने लताजी से बात की और यह बता दिया कि पंडितजी 'मीरा' के लिये संगीत दे रहे हैं

वहीं - 'वाटरगेट होटल' में मुकेश जी से ज़िन्दगी की आख़िरी मुलाक़ात हुई । शायद नसीब में ऐसा होना लिखा था । रविशंकर जी के चुनाव पर उन्होने मुझे मुबारकबाद भी दी थी । वहीं, उसी दौरे में मुकेशजी का देहांत हो गया।

न्यूयार्क में एक दिन निहायत ख़ूबसूरत आवाज़ का फ़ोन आया :
'मैं फ़िल्मों में काम करना चाहती हूं, लेकिन आप किसी को बताइयेगा नहीं !'
'अरे' मैंने हैरत से कहा, 'आप फ़िल्मों में काम करेंगी तो छुपायेंगी कैसे?"
'छुपाने को थोडे ही कहती हूं, आप बताइयेगा नहीं ! लोग अपने आप देख लेंगे!'

वह दीप्ती थी - दीप्ती नवल ! किसी न किसी रोज़, एक ना एक फ़िल्म में आप उसे ज़रूर देखेंगे !

सोलह अगस्त तक मैं पंडित जी के साथ था । उनके बेहद व्यस्त प्रोग्राम में, जहां जहां वक़्त मिला, वह मीरा के भजनों पर काम करते रहे, स्क्रिप्ट पर अपने नोट विस्तार से लेते रहे । सोलह अगस्त को जब पंडित जी के साथ आख़िरी बैठक हुई तो उस दिन तक बम्बई में हमारी रिकार्डिंग की तमाम तारीख़ें और स्टुडियो बुक हो चुके थे । और सब से अहम बात जो तय हो चुकी थी, वह यह कि मीरा के गाने गायेंगी - वाणी जयराम

नवम्बर के शुरू में पंडित रविशंकर हिन्दुस्तान पहुंचे । २२ नवम्बर १९७६ से गानों की रिहर्सल शुरू हुई । ३० नवम्बर से महबूब स्टुडियो में वसंत मुदलियार कि देख रेख में 'मीरा' के गानों की रिकार्डिंग शुरू हुई और १५
दिसम्बर १९७६ तक 'मीरा' का पूरा म्युज़िक रिकार्ड हो चुका था! एक व्यक्ति, जिसने अनथक मेहनत की इस काम को पूरा करने में वह थे श्री विजय राघव राव, जो पंडित जी का दाहिना हाथ ही नहीं, दोनों हाथ हैं ।

मीरा का संगीत पूरा हुआ, शूटिंग की तैयारी शुरू हुई और...
अमिताभ बच्चन ने फ़िल्म छोड दी ।

'वर की तलाश फ़िर से शुरू हो गयी। फ़िल्म फिर रुक गयी ।

इस बार कई महीने लग गये। किसी नये कलाकार को भी लिया जा सकता था, मगर एक बडी मुश्किल थी कि उन्हीं दिनों 'मीरा' की ज़िन्दगी पर एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई और फ़्लाप हो गयी । इंडस्ट्री में - मीरा की कहानी पर एक अभिशाप है - कहा जाने लगा । नये अभिनेता को लेकर प्रेमजी के लिये फ़िल्म बेचना ज़्यादा मुश्किल हो जाता । डिस्ट्रीब्यूटर्स की दिलचस्पी यूं ही टूट रही थी । उनका ख़याल था, प्रेम जी अब यह फ़िल्म पूरी नहीं कर पायेंगे । लेकिन एक बार फिर उनके हौसले की दाद देनी पडती है । चुपचाप वह अपने इंतजाम में लगे रहे । मुझसे कहा : 'आप शूटिंग शुरू कीजिये । 'मीरा' ख़ुद ही कोई रास्ता बतायेगी । अगर वह अपनी लगन से नहीं हटी, तो हन क्यों हट जायें ?'

२५ मई १९७७ से इस फ़िल्म की बक़ायदा शूटिंग शुरू हुई ।

राजा भोज के द्रुश्यों को छोडकर - जो भी शूटिंग मुमकिन थी - वह चलती रही । और फिर एक दिन अचानक ही राजा भोज मिल गये ।

विनोद खन्ना राजा भोज का रोल करने के लिये तैयार हो गये । वह महीना जनवरी का था, सन १९७८ ।

विनोद बस एक दिन के लिये सेट पर आये थे । बाक़ी तारीख़ें सितम्बर १९७८ से शुरू होती थीं और इस हिसाब से नवम्बर तक फ़िल्म पूरी हो जाती थी। अगस्त १९७८ में विनोद खन्ना ने फ़िल्म-लाइन त्याग देने का फ़ैसला कर लिया ।

जनवरी के उस एक दिन की बंदिश के लिये विनोद ने 'मीरा' पूरी करने की हामी भर ली थी । 'मीरा' समझिये कि बाल बाल बच गयी, वर्ना फिर वही तलाश शुरू हो जाती ! सितम्बर में विनोद ने शूटिंग शुरू की और इधर पंडित जी का तार भी मिला ।

मुझे ये बताने की मोहलत नहीं मिली कि सन १९७६ में जब फ़िल्म का संगीत रिकार्ड किया गया था तो हमने सितम्बर १९७७ की तारीख़ें फ़िल्म के बैकग्राउंड म्युज़िक के लिये तय कर ली थीं । अब सन १९७८ आ चुका था और पंडितजी पूछ रहे थे कि फ़िल्म का बैक-ग्राउन्ड म्युज़िच रिकार्ड होना कब शुरू होगा? क्योंकि इस साल सितम्बर में अगर बैक-ग्राउंड म्युज़िक न रिकार्ड हो पाया, तो पंडित जी अप्रैल १९७९ तक हिन्दुस्तान नहीं आ पायेंगे ।

प्रेम जी मुस्करा दिये । एक शेर पढा :

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ-ना-कुछ घबरायें क्या !

बडा प्यार आया प्रेमजी पर ।

१५ सितम्बर से २० सितम्बर १९७८ तक के बीच फ़िल्म का बैक-ग्राउंड म्युज़िक भी रिकार्ड कर लिया गया।

फ़िल्म का पूरा होना अभी काफ़ी दूर था । लेकिन पूरी फ़िल्म के हर सीन की अन्दाजन लम्बाई निकाल कर , बगैर फ़िल्म देखे , सिर्फ़ स्क्रिप्ट के भरोसे पर, हमने 'मीरा' का बैक-ग्राउंड म्युज़िक पूरा कर लिया । अक्तूबर से फिर शूटिंग शुरू कर ली । अब बैक-ग्राउंड म्युज़िक पहले था और 'सीन' बाद में ।

नवम्बर में फ़िल्म ख़त्म हो रही थी जब बम्बई में पीलिया की बीमारी फैली । इंडस्ट्री के बहुत से कलाकार उसकी लपेट में आ गये । पहली बार... हेमा की वजह से तारीख़ें कैंसिल हो गयीं । बेचारी बीमारी की गिरफ़्त में आ गयी ।

विनोद की तारीख़ों का मसला फिर वैसे ही सामने खडा है ।

हमारे एक 'मियां मुश्किल-कुशा' हैं - श्री तरन तारन । वही ऐसी मुश्किलें सुलझाते रहे हैं । यह मुश्किल भी उनके सामने रख दी है ।

यह दिसम्बर चल रहा है, आज की ताज़ा ख़बर के अनुसार ३० दिसम्बर को फ़िल्म ख़त्म कर पाऊंगा ।

अंग्रेज़ी में कहते हैं ना : 'टच-वुड'

१५ दिसम्बर, १९७८
गुलज़ार

बुधवार, सितंबर 26, 2007

Gulzar saab's new nazms on his birthday

जाते जाते एक छोटी सी नज़्म आप लोगों के लिये

अबे इसे पता नहीं क्या कहेंगे आप ऐसी नज़्म को...
देखने में पाजी लगती है.. वैसे है नहीं
या फिर देखने में नहीं लगती पर है पाजी....


ये बूढ़े लोग अजब होते हैं

छाज में डाल के
माज़ी के दिन
कंकर चुन कर
दांत तले रख कर उनको
फिर से तोड़ने की कोशिश करने लगते हैं

तीस बरस की उमर मे जब हुआ दांत ना टूटा
सत्तर साल की उम्र मे तो दांत ही टूटेगा

-*-

नये नये ही चाँद पे रहने आये थे
हवा ना पानी, गर्द ना कूड़ा
ना कोई आवाज़, ना हरक़त
ग्रेविटी पे तो पाँव नहीं पड़ते हैं कहीं पर
अपने वतन का भी अहसास नही होता

जो भी घुटन है जैसी भी है,
चल कर ज़मीं पर रहते हैं
चलो चलें, चल कर ज़मीं पर रहते हैं

Gulzar saab conveys thanks.. शुक्रिया दोस्तो

शुक्रिया दोस्तो!


दोस्तो,

अब बड़े हो गये हो ना तो आप सबको दोस्त ही कहना चाहिये..इतने छोटे नहीं कि अब आपको बच्चों कह के बुलाऊं.. एक बार फिर शुक्रिया कि आप याद रखते हैं मुझे...और आप याद रखते हैं कि मैं एक साल और बड़ा हो गया हूं या बूढ़ा हो गया हूं.. लेकिन मैं भी नहीं भूलता कि आप सब भी एक साल और जवान हो गये हैं


मैं यहां आप सबकी मुबारक़-बाद क़बूल करता हूं.. आप सब को भी बहुत बहुत शुक्रिया मेरा..
मुझे इस जन्मदिन पर भी आप सब से बहुत से तोहफ़े मिले हैं... रू.ब.रू की एलबम मिली.. जिसमें आप सब की तस्वीरें हैं.. बहुत अच्छा लगा.. किताबें और म्युजिक मिला कई जगह से.. अच्छे काम की तारीफ़ भी मिली है तो हल्के और बुरे काम की निंदा भी ( क्रिटिसिस्म ) भी मिला...

मैं आप सबको गौर से सुनता भी हूं और सोचता भी हूं..
कोई जोश में आकर "पापे आप तो पोप हैं" कह दे तो वो भी समझता हूं कि बड़ा फ़िल्मी है और जब ग़ालिब से तुलना करने लगे, तौबा तौबा कह के अपने कान पकड़ लेता हूं.. हालांकि मुझे पकड़ने उसके चाहिये जिसने ये नालायकी की है ..मैं जानता हूं कि ना वो ग़ालिब का रुतबा जानता है ना उसे मेरी हैसियत का पता है.. सच तो ये है उसने शायद दोनो को ही नहीं पढ़ा है..

चलिये.. एक बार फिर शुक्रिया आप सब का... इन्शा-अल्लाह एक बार फिर मिलूंगा आपको.. जन्म दिन पे ही या उसके आस पास किसी भी रोज़..

शुक्रिया..

गुरुवार, सितंबर 06, 2007

Gulzar on Sixty Years of Independence [साठ साल आज़ादी के ]

साठवें साल तक पहुँचकर जब हम उस बँटवारे को याद करते हैं तो याद आता है कि उस समय हम उसे आज़ादी का साल कहने के बजाए 'सन् 47 में बँटवारे के समय पर...' कहते थे, क्योंकि वो दुर्घटना बहुत बड़ी थी.

मगर कहीं न कहीं जाकर ऐसी चीज़ें इतिहास का हिस्सा बन जाती हैं और उसे बनने देना चाहिए न कि हर बार उन्हें झाड़-पोंछकर, खुरचकर बाहर निकालें. ख़राशों को नाख़ूनों से खरोंचा न जाए तो ही बेहतर है क्योंकि ये ज़ख़्म भर चुके हैं और उन्हें भरने देना चाहिए.

उन्हें इस सूरत मे याद करने के बजाए अब इतिहास की तरह याद करना चाहिए. जिस नस्ल ने वो बँटवारा देखा है, मेरे ख़्याल में तो वो अब उम्र के अंतिम पड़ाव पर है और वक़्त बहुत निकल चुका है, पुल के नीचे से बहुत पानी बह चुका है इसलिए अब उन्हें भी उसे कहीं न कहीं अच्छी सूरत में देखना चाहिए.

अब भी अगर उस वक़्त को उस पुराने रूप में ही याद रखेंगे तो ये जो ताल्लुक़ात अच्छे होने की राह पर है वो कभी नहीं पनपेगा. जो लोग उस वक़्त से गुज़रे हैं अब उन्हें भी मुस्कुराना चाहिए कि इतिहास था, बीत गया.

वो तमाम तस्वीरें जो मेरे ज़ेहन में हैं मैं उन्हें बदलने के लिए तैयार नहीं हूँ. मैंने अपना वो देहात उसी तरह से अपने ज़ेहन में महफ़ूज़ रखा है जो मेरी नज़मों में बार-बार आता है

ऐसा बहुत कुछ हुआ आज़ादी की जंग में. हमारे और अँगरेज़ों के बीच बहुत कुछ हुआ था. 1857 को अगर हम आज याद करते हैं तो उसे आज़ादी की पहली जंग के तौर पर याद करते हैं अब अगर हम बार-बार यही याद करते रहे कि अँगरेज़ों ने हमारे साथ ऐसा किया-वैसा किया तो फिर ज़िंदग़ी कभी आगे नहीं बढ़ सकती.

मेरी अपनी राय कुछ ऐसी है कि- हाँ साहब, एक बहुत बड़े हादसे से गुज़रे हम. मगर हम तो दूसरे विश्व युद्ध से भी गुज़रे थे तो उसे याद करते हुए कब तक चलेंगे. उसके बाद से तो रूस की, यूरोप की, अमरीका की शक़्ल बदल गई है इसलिए उसे लेकर तो नहीं चला जा सकता.

इसलिए रवैये को ज़रूर बदलना चाहिए. बल्कि मेरे ख़्याल से तो ये मीडिया का भी फ़र्ज़ बनता है कि वो भी इसका ख़्याल रखे.

'वो मेरा घर'

मेरा घर पाकिस्तान में है और मेरी पैदाइश वहाँ की है, मैं तो अपनी नज़्मों में भी यही कहता हूँ कि, 'वतन अब भी वही है पर नहीं है मुल्क़ अब मेरा'. मेरा अब मुल्क़ ये है, देश ये है और मुझे बड़ा फ़ख़्र है हिन्दुस्तान पर.

मगर मेरा वतन, मेरा जो जन्म स्थान है उससे तो मैं अलग नहीं हो सकता.

मेरा जो घर है वो दीना में है, वहाँ के लोगों से मेरा वास्ता है. दीना के लोग दुनिया भर में फैले हुए हैं और जिन लोगों को मालूम है कि मैं भी दीना से हूँ वो मुझे ख़त लिखते हैं सिर्फ़ इसी रिश्ते से कि वो भी दीना से हैं.

बँटवारे पर बनी फ़िल्म का एक दृश्य
बँटवारे पर हिंदी सिनेमा में कई फ़िल्में बनी हैं

कुछ लोगों ने तो वहाँ की गलियों की तस्वीरें लेकर भेजी हैं. एक साहब ने मुझे दीना स्टेशन की एक तस्वीर भेजी और नीचे लिखा है कि इसकी शक़्ल सूरत आज भी वैसी ही है. इसकी हर एक ईंट अँगरेज़ों के ज़माने की बनाई हुई है.

मगर तस्वीरों से मैं अंदाज़ा लगा रहा था कि उसमें एक जनाना हिस्सा और अलग बन गया है और वहाँ पहले जो रेलवे का एक ही ट्रैक हुआ करता था अब वहाँ तीन ट्रैक बन गए हैं.

वहाँ दीना के जिस बाज़ार से हम गुज़रा करते थे, जहाँ रहा करते थे वहाँ एक आशिक़ अली फ़ोटोग्राफ़र हैं. उनके ख़त आए, उन्होंने तस्वीरें लेकर भेजीं और उस गली का पता भी लगाया.

जब मेरे बाबा जनाब अहमद नदीम क़ासमी बीमार थे तब मैं लाहौर गया था मगर मैं दीना नहीं गया और उसकी ख़ास वजह है.

वहाँ काफ़ी तरक़्क़ी हो चुकी है. अब वहाँ हाईवे बन गया है. जिसे शेरशाह सूरी मार्ग कहते हैं या जिसे हम जीटी रोड कहते थे, वो वहाँ का हाईवे है.

यानी शक़्ल सूरत काफ़ी बदल गई है और वो तमाम तस्वीरें जो मेरे ज़ेहन में हैं मैं उन्हें बदलने के लिए तैयार नहीं हूँ. मैंने अपना वो देहात उसी तरह से अपने ज़ेहन में महफ़ूज़ रखा है जो मेरी नज़मों में बार-बार आता है.

(बीबीसी संवाददाता मुकेश शर्मा से बातचीत पर आधारित)

[ आभार : http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2007/08/070806_gulzar.shtml
]

नीली आसमानी छतरी : The magic of Blue Umbrella

मानसून जोरों पर है, और छातों के लिये तो इससे बेह्तर पूछ का समय कुछ और हो ही नहीं सकता.. इसी दौरान एक खूबसूरत सी छतरी सबसे रू.ब.रू होने जा रही है कल १० अगस्त को.. एक लम्बा इंतज़ार खत्म हुआ.. संगीत आधिकारिक तौर पर दो हफ़्ते पहले बाज़ार में उतरा है.. (हालांकि ऐसी फ़िल्मों के साथ बाज़ार शब्द बहुत बाज़ारू लगता है.. मगर क्या करें, और कोई चारा भी नहीं है) और फ़िल्म कल प्रदर्शित होने जा रही है और सोने पे सुहागा ये कि कल ही फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार के लिये चुना गया है... अब विशाल की इस छोटी सी छतरी के खुलने की इससे बेहतर घड़ी नहीं हो सकती थी..

बात संगीत की.. फ़िल्म का "टाईटल" गीत नीली आसमानी छतरी मुझे बेहद पसन्द है.. आधिकरिक तौर पे संगीत को ज़ारी हुए दो हफ़्ते ही हुए हैं, मगर इंटरनेट की कृपा से इसके गीत कई महिने पहले से सुने जा रहे हैं.. विशाल की इस छोटी सी छतरी में गुलज़ार साब के जादूई शब्दों ने ऐसे प्राण फूंके हैं कि छतरी जीवन्त हो उठी है.. गीत में एक ऐसी छतरी सुनने वलों से रू.ब.रू होती है जो चल सकती है, तैर सकती, भाग सकती है और पाजी और शैतान तो है ही.. और छतरी का ढांचा भी गुलज़ार साब ने बहुत खूबसूरती से खड़ा किया है

"अम्बर का टुकड़ा तोड़ा
लकड़ी का हत्था जोड़ा
हाथ में अपना आसमान है"

छतरी का बारिश से नाता दूसरे अन्तरे मे बखूबी पेश किया है गुलज़ार साब ने..

"बारिश से जो रिश्ता है
पानी पे मन खिंचता है
पिछली कोई पह्चान है
शायद फिर उड़ना चाहे
अम्बर से जुड़ना चाहे
भोली है अन्जान है"


गीत पेश है...


गीत : नीली आसमानी छतरी
फ़िल्म : द ब्लू अम्ब्रेला
गायिका : उपाग्ना पण्डया
संगीतकार : विशाल
गीतकार : गुलज़ार


अरे हे ~
नीली आसमानी छतरी
धरती का उड़न खटोला
डोले तो लागे हिन्डोला
उड़े कभी, भागे कभी
भागे कभी, दौड़े कभी
समझे ना माने छतरी

अम्बर का टुकड़ा तोड़ा
लकड़ी का हत्था जोड़ा
हाथ में अपना आसमान है
छतरी लेके चलती हूं
मेमों जैसी लगती हूं
गोरों का दिल बेईमान है

खूंटी कभी, लाठी कभी
लाठी कभी, छड़ी कभी
पाजी शैतानी छतरी

बारिश से जो रिश्ता है
पानी पे मन खिंचता है
पिछली कोई पह्चान है
शायद फिर उड़ना चाहे
अम्बर से जुड़ना चाहे
भोली है अन्जान है

डूबे कभी, तैरे कभी
गोते खाती जाये कभी
करे नादानी छतरी

हे हे~ हे नीली आसमानी छतरी
धरती का उड़न ख टोला
डोले तो लागे हिन्डोला
उड़े कभी, दौड़े कभी
दौड़े कभी, भागे कभी
समझे ना माने छतरी

बुधवार, अगस्त 08, 2007

विश्व हिन्दी सम्मेलन में गुलज़ार (gulzar at world hindi conference)

आठंवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन हाल ही में न्यूयार्क मे आयोजित हुआ.. सम्मेलन के दौरान आयोजित कवि सम्मेलन में गुलज़ार साब अपनी एक नयी नज़्म ’मकां’ के साथ श्रोताओं से रू.ब.रू हुए..

पेश है उनकी ये नज़्म





मकां -

मकां की ऊपरी मंज़िल पे अब कोई नहीं रहता,
वो कमरे बन्द हैं कब से
जो चौबीस सीढियां उन तक पहुंचती थी,
वो अब ऊपर नहीं जाती.

मकां की ऊपरी मंज़िल पर
अब कोई नहीं रहता

वहां पर कमरों मे इतना याद है मुझको,
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे,
बहुत से तो उठाने, फ़ेंकने, रखने में चूरा हो गये थे.

वहां एक बालकनी भी थी,
जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था 'तोता',
वो रोज़ आता था,
उसको हरी मिर्ची खिलाता था,
उसी के सामने छत थी जहां
एक मोर बैठा, आसमान पर
रात भर मीठे सितारे चुगता रहता था.

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंज़िल पे रहते हैं,
जहां पर पियानो रखा है,
पुरानी पारसी स्टाइल का
फ़्रेजर से खरीदा था.
मगर कुछ बेसुरी आवाज़ें करता है,
कि उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं,
सुरों पर दूसरे सुर चढ गये हैं


उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी...
[मकां ज़रा बड़ा है इसलिये नज़्म भी बढ़ गयी है... माफ़ कीजियेगा, कमरे ज्यादा हैं..]

जहां पुरखों की तस्वीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था
हवा फ़िर टेढा कर जाती
बहू को मूंछो वाले सारे पुरखे
’क्लिशे’ लगते थे,
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा
पुराने न्यूज़पेपर में
उन्हें महफ़ूज़ करके रख दिया था,
मेरा एक भांजा ले जाता है
फ़िल्मों में कभी सेट पर लगाता है
किराया मिलता है उनसे.

मेरी मंज़िल पे मेरे सामने मेहमानखाना है
मेरे पोते कभी अमरिका से आयें तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं,
जितनी बार आते है
खुदा जाने वो ही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ़ बन्द है
जहां बत्ती नहीं जलती
वहां एक रोज़री रखी है वो उस से महकता है
वहां वो दाई रहती थी
जिसने तीन बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी
मरी तो मैने दफ़नाया नहीं,
महफ़ूज़ करके रख दिया उसे

और उसके बाद एक दो सीढ़ियां है
नीचे तहखाने में जाती है
जहां खामोशी रोशन है,
सुकूं सोया है
बस इतनी सी पहलू में जगह रखकर
कि जब मैं सीढ़ियों से नीचे आऊं
तो उसी के पहलू में, बाजुओं पर सर रख कर गले लग जाऊं
सो जाऊं

मकां की ऊपरी मंज़िल पे अब कोई नहीं रहता....

गुलज़ार

गुलज़ार के प्रेमचंद

प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं
हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा है
कितने दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी
‘होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक
पोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी
ख़ाली गोद रही आख़िर
कहती रही डूबना ही क़िस्मत में है तो
बोल गढ़ी क्या और गंगा क्या
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रही
कितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में
‘घीसू’ ने भी कूज़ा-कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी ली
तलछट चाट के आखिर उसकी बुद्धि फूटी
नंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है
‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकाते
सांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली
‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.
‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानी
एक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए
‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थे
अपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'

रविवार, जुलाई 15, 2007

Libaas : An Unseen Experience

Libaas remains one of the most special Gulzar movie for me… Its an Unseen film for me, still I can feel the film like any other films that I have seen.. I have read the film [It is based on a short story of Gulzar titled “Seema” published in Ravi Paar] and I have also “heard” the film [thru the songs and dialogs on cassettes].. It was almost as good as seeing the film…

The intensity of script and characters can be felt in the dialouges… Three main characters Sudhir [played by Naseeruddin Shah.. brilliant again as a Theater Director who puts work at the top priority and treat relations as secondary], Seema [Shabana Azmi, the rebel wife of
Naseer, She is more a character for his director husband than a wife] and TK [Raj Babbar, as an old friend of Naseer, [total contrast to Naseer’s character] who visits Naseer after long.. woos Shabana…. he is more of a bubbly and charming character].

The story starts with a theater group which Naseer is struggling to setup. Shabana is Naseer’s wife and also leading lady in his production.. The film starts on a lighter mood and a few funny moments with Utpal dutt (dubbed by Johnny Lever after his death), Anu Kapoor and Naseer…

Utpal Dutt introduces the leading characters in the opening scene…

“Drame me bhi miyaan-biwi ke role karate hain aur ghar pe bhi wahi..
bore nahin ho jaate ek hi role karte karte”…

For Naseer, Theater is life… much more than anything..

“Khana banana bhool jaaogi to bardasht kar loonga par apni line bhool jaaogi to kabhi maaf nahin karoonga..”..

Though Shabana behaves like a subordinate all the time, she has other demands too from the life.. One of the most important scene of the film speaks all….

Shabana (at home) : “Main baal katwa loon.. chhote karwa loon, achhi lagoongi”..
Naseer : “to hayvadan ki padmini ka kya hoga, aur khamosh adalat ki leela bainare ka?”
Shabana : “Matlab Padmini aur Bainare mujh se jyada important hain..
Mujh mein hamesha apne characters hi dekhte ho.. Kabhi mujhe bhi dekha
hai?”
Naseer : “Are tumhare andar to saara jahaan dekhta hoon”
Shabana : “Dialogue mat bola karo har waqt.. tumhare liye to mujh se jyada theater important hai na.. I know if you have to choose between theater and me.. you would choose theater”
Naseer : “Seema, theater sirf tumse hi nahin, mujhse bhi jyada important hai.. ham dono baad me aate hain, aur theater pahle”

an introduction to the characters completes with the entry of Raj Babbar, a businessman and an old friend of Naseer…

Shabana : “Bada hi betakalluf dost tha aapka, is tarah to pahale kisi ko nahin dekha aapke saath…theater me to sab subordinates ki tarah behave karte hain”

The story develops and restricts to the three main characters, their egos, the bondage and the break in relationships. The focus is on the character of Shabana.

Naseer :

“Ghar me rahti to ghar bore karta tha, theater me ho to theater bore karta hai.. Hamesha wahaan rahna chahti ho jahaan nahin ho, aur jahaan ho usase kabhi khush nahin ho.. You always want to be somewhere else, not where you are.. and you even don’t know where you
want to be”

Shabana stops doing theater and starts spending time with Raj Babbar..

Gulzar saab like a master craftsman draws parallels between the characters of his film and Mohan Rakesh’s Adhe Adhure using the play being prepared by Naseer and his theater group..

Also the scene where Naseer comes to know about the affair between Shabana and Raj Babbar, and he talks about it with Raj-Shabana is brilliantly handled.. (atleast it “sounds” so).. What happens next should be left undiscussed, hoping the film would release some day..

Music makes Libaas more special film.. It was the last film that Pancham da did with Gulzar saab… Also it was only the second and the last time Pancham da sang with Lata [for kya bura hai kya bhala]…Music of libaas is a kind of a sequel to Ijaazat… The album contains only 4 songs, all top class… including a superb Pancham composition “Sili Hawa Choo Gayee”, a typical gulzarish song, beautifully rendered by Lata… “Khamosh sa afsana” a duet by Suresh and Lata… “Phir kisi
shaakh” is the next version of “Khali haath shaam aayee hai” in the mood and rendering… and “Kya bura hai kya bhala” is a lively group number [a bit of qawwali touch]…

Libaas was never released in theaters though it was shown in a couple of film festivals around 94-95….

“Jitne bhi tay karte gaye, Badhte gaye ye faasle
Meelon se din chhod aaye, saalon si raat leke chale”
[very appropriate in reference to its release also!]

We all hope it will see the light of the day.. some day… amen!


Pavan


Libaas : 1988

Director : Gulzar

Producer : Vikas Mohan

Cast : Naseeruddin Shah, Shabana Azmi, Raj Babbar, Utpal Dutt, Annu Kapoor

Music Director : RD Burman

Lyricist : Gulzar

Singers : Lata Mangeshkar, Suresh Wadkar, RD Burman

Audio : Weston, HMV

शुक्रवार, जून 15, 2007

The Lyrical Beauty of Paheli -4 : Khali Hai Tere Bin

After a small break, I am back and we continue with our ongoing series
on Paheli songs and this time we explore the lyrical beauty of "Khali
hai tere bin". "Khali hai tere bin" is a "Viraha" song and soulful
rendering by Hariharan and Bela (Saregama winner) adds value to the
composition and lyrics. The song reminds me of Maachis's "Tum gaye sab
gaya" primarily due to the mood of the song.. The mukhada is typical
gulzarish in its lines



"khali hai tere bina dono ankhiyaan tum gaye kahaan
ankhiyon ke aalon me tere bina
raat bhar jalti hai baatiyan"

where are you, without you, I am left emotionless
and having sleepless nights (raat bhar jalti hai baatiyan)

The lovers (ghost and laachhi) are seperated, and finding life
difficult and emotionless in the phase of seperation.. They are
recalling the moments they spent together. I think the song is placed
when the real Shahrukh (the human) returns back and the ghost Shahrukh
is seperated from Raani and the two lovers missing each other recalls
the time of togetherness.. "Ankhiyon ke Aalon" is a nice expression as
a placeholder for baatiyan (light) and signifies sleeplessness..

Ghost Shahrukh asks

"Doob-ta hai din to shaam ko, saaye udate hain teri yaadein liye
Laakh din hue hain ki raat ko aadhe chaand se teri baatein kiye"

Every evening, the images (of you) captures my attention and its been
a long time since we have seperated

"Yaad hai kya tujhe raah ki beriyaan"
Do you still remember the time that we have spent together?

Raani replies (might not be face to face)

"ek ek baat yaad hai, aadhi raat ke poore chaand ko
jaagti huee bhi hoon khwaab me, chehra ek hai, leti hoon naam do"

Yes I remember every single moment that we spent together..
Though I am facing the truth (jaagati huee means, living with Shahrukh
the human) still I am in my dreams (dreams reflect Shahrukh the
ghost, which is not real)... "Chehra ek hai, leti hoon naam do" (The
face of her husband remains the same but for her the two hearts are
different in character)

"Reet ke teelon ki sunti hoon boliyaan"

Here gulzar saab comes up with his unique style of merging a similar
sounding word instead of a popular and common word used. "Ret ke
teelon" is replaced by "Reet ke teelon" (do you recall any other
instances?, there are many more) and the line singnifies that she is
bound by traditional rules and helpless. Seems that Panchayat (village
administration) seperated the lovers in the name of traditions (will
know the exact context only after viewing the film)

MM Kreem then gets Hariharan at full blast to express the pain of
seperation of two characters. In one of the interludes, he has used
the antara of "dheere jalna" beautifully..

beautiful song indeed..

गुरुवार, जून 14, 2007

The Lyrical Beauty of Paheli -3 : Dheere Jalna

Its time for discussing the opening track of the album "dheere jalna".
"Dheere Jalna" is a fantastic composition by MM Kreem and rendered
beautifully by Sonu Nigam and Shreya Ghoshal. But its lyrics of the
song that captures the theme and mood of the film amazingly.



The song is woven around the theme of a dream and the song talks about
many dreams in the context of the film. As we have discussed the theme
of the film earlier, where "Shahrukh the ghost" disguise himself as
the husband of newly wed Raani Mukherjee when her husband "Shahrukh
the human" moves out for five long years on the night of the wedding
it self. Sapne jo toot chuke hain (with the exit of Shahrukh the
human") , aur naye sapne jo aakaar le rahe hain (with the entry of
"Shahrukh the ghost"). This is definately picturised on Shahrukh the
ghost and most possibly after Raani comes to know about the truth of
Shahrukh the ghost.

"kaanch ka sapna gal hi naa jaaye
soch samajh kar aanch rakh-na
dheere jalna dheere jalna, zindagi ki lau pe jal-na"

"kaanch ka sapna" conveys a few things. One thing is that the dream is
fragile in nature and would not last long. Second it would be more
painful when it breaks and third it depicts the Ghost itself is a
dream and Kaanch ka sapna could mean Ghost who is the mirror image of
her husband and may not live long with her.
"Gal hi naa jaaye" reflects coming to the terms, the truth That is why
Shahrukh the ghost ask to take precautions while making a relationship
as it might not last long (soch samajh kar aanch rakhana)

But then Shahrukh the ghost have an objective behind all his disguise act.

"Tere roop ki halki dhoop me, do hi pal hain jeene hain
Teri aankh me dekh chuka hoon, jo sapne hain, seene hain"

Halki dhoop depicts a pale face, ek udaas chehra despite being a newly
wed wife. Shahrukh the ghost also understands that his relationship
will not last long with her and he has just "Do hi pal". But he has
seen the broken dreams in her eyes, which the (dreamstailor) ghost
will repair (jo sapne hain, seene hain - sewing the broken dreams) by
giving her some good company.

"Aankhon me sapno ki kirachein hain, chubhti hain
dheere jalna.."

as the dream is broken in pieces, the pieces hurts a lot....

MM Kreem's use of instruments at this moment takes the song to another
height..

Raani seems to be undecisive till this point, but finally she finds
the ghost's company acceptable and she joins
"socha na tha, zindagi aise phir se milegi jeene ke liye
aankhon ko pyaas lagegi, apne hi aansoo peene ke liye"

She gets a life to live again and also gets her emotions back
(aankhein to aansoo nikaal kar sookh chuki hain, all emotions have
dried up, and this relationship will get back all the emotions for
her)

zindagi ki lau pe jalna...

enjoy!

The Lyrical Beauty of Paheli -1 : Phir Raat Kati

The lyrical beauty in Paheli

Although I have already written a review on Paheli music, I have recently received a couple of messages to explain the meanings of a few songs (something which I hate to). Here is my try on some paheli lyrics.

I haven't read the story "Duvidha" or seen the earlier film on this, but as we already know that Paheli is story of a ghost (Shahrukh) who falls in love with a newly wed heroine Lachhi (Raani), whose husband left her immediately after the marriage for business. The ghost disguise every one by posing as Shahrukh, the husband and everyone happily lives for a while.. till the husband returns to the village.. now the paheli is whom should Raani choose as her life partner, the ghost Shahrukh or the human Shahrukh.

The songs of Paheli tries to sketch the story of the film and all the songs seems to be tightly integrated in the script. The lyrics are fantastic and paints a beautiful picture of the story. Each song carries a theme related to the script.

lets start with the sutradhaar geet "phir raat kati" (the simplest of all for me). At a first few listenings, the attraction of the song comes out to be fantastic rendering by sukhwinder and Sunidhi, but when you drills down the song, the simple yet beautiful lyrics are explored.




The song talks about the eternity of "Folk Tales" and introduces to us one of the folk tales from the sand dunes of Rajasthan. The song is comprised of very simple and
local words and it portrays the eternity of folk tales beautifully. Simple and effective lyrics makes this a wonderful introductory song..

"Har raat kahaani chalti hai, aur hawaa sunaati hai baatien
kabhi baat jubaani chalti hai"

Every night has a story to tell so as the winds in the sand dunes have stories to tell, as they have witnessed many..

"Deh ki reti ud jaavegi
Preet sadaa reh jaavegi
samay gujar jaavegaa baabu,
lok kathaa reh jaavegi"

The body will not last, but the love will be forever so as the folk tale

"Bahut din jab gujar gaye aur laakh chand jab utar gaye
Peepal pe ek padaav hua aur phir janme ka chaav hua"

This is the story of a ghost staying of a peepal tree, who wants to be a human again (phir janme ka chaav hua) after many many years (laakh chand is lacs of days in gulzar saab's unit of time)

"maaruthal me baalu jab tak, unka naam rahega"
As long as there is sand in the desert of Rajasthan, the story (of the ghost and Lachhi) will live"

The position for this song seems to be at the time of credits (in the beginning and/or in the end), until and unless the story teller Amol Palekar has something different for us.

Next on cards "Kangana Re" tomorrow

The Lyrical Beauty of Paheli -2 : Kangna Re

This time we explore the lyrical beauty in "Kangana re" (कंगना रे). One reason I hate the album of Paheli, is that the music company didn't provided the lyrics book with the album. The words I can make out only thru listening session and its possible that I might goof up in quoting the exact word sometime.

As I said earlier that each song of Paheli is penned around a theme.. and gulzar saab has penned "Kangana re" on diiferent kind of jewellery, portraying a newly wed woman (who usually wears lots of zevars) and requesting her husband to bring her the best of jewellery.



The song starts with the sounds of kangan and choodis and even the lyrics of opening lines talks about the khan khan and chhan chhaan sounds of kangans and how the newly wed wife using her zevars to wakeup her husband.

"जब चूड़ियाँ खनके, कंगना छनके
जग जा वे सजना रे छन छनन"
"jab choodiyan khan-ke, kangana chhan-ke, jag-ja ve sajna re
chhan chhanan"

(once the husband shahrukh gets up and joins raani on the dance
floor), Raani complains

थारो कौनो रंग ना भावे
मने थारो ढंग ना भावे
"thaaro kauno rang na bhaave
mane tharo dhang na bhaave"
[I dont like your style, the kind of jewellery and the colors you bring for me]

काँच हो तो टूटे, लाख हो तो छूटे
धनक तोड़ लाओ तो हम कंगन पहनेंगे
सात रंग की चूड़ी पहनेंगे
"Kaanch ho to toote, laakh ho to chhoote
Dhanak tod laao to hum kangan pahanange
saat rang ki choodi pahanange"

[the glass choodi breaks and laakh chhodi doesn't last long
get me a piece of rainbow on sky, I will then wear the choodi of seven colors. ]

the husband's reply is beautifully constructed by gulzar saab. He makes the rainbow a jhoola (the way it is shaped)

मैं एक सिरा बांधूं, तुम दूजा सिरा बांधो
तब सात रंग का झूला डाल के
रंग रंग रंग रंग गगन को रंगना रे
"main ek siraa baandhu, tum doojaa siraa baandho
tab saat rang ka jhoola daal ke
rang rang rang rang gagan ko rangana re"

[I will hold one end and you hold the another
We'll swing this rainbow together and color the sky..]

gulzar saab beautifully captures this in words and also full marks to Sonu Nigam and MM Kreem as they have executed this stanza beautifully..

Next stanza features a virahani (a seperated lover) is singing virah ka song...

ढोला रे ढोला
घोर अमावस जाए ना ढोला
बिरहा को रंग गूढ़ा
ढोला रे ढोला

चंदा की चूड़ी, दिखे तो पहनूं
हाथीदांत का चूढ़ा
बिरहा को रंग गूढ़ा
"dhola re dhola
ghor amaavas jaaye na dhola
birahaa ko rang goodhaa
dhola re dhola
chanda ki choodi, dikhe to pahanu
haathidaant ka chooda
biraha ko rang goodha"

She is trying to convey the pain of seperation (biraha), She says "biraha" is dark as she compares it with "ghor amaavas" and she says the biraha is getting longer and seems not ending "ghor amaavas jaaye na dhola"

Chanda ki choodi dikhe to pahanu
haathidaant ka chhoda

She says, The moment I see the moon (means amaavas gone, and biraha period ends) , she will wore a chooda of Haathidaant (Ivory), but for now the amaavas of seperation seems unending.. She is not talking of wearing the moon's bangle, but using moon as a bangle.

[I will wear the moon as a choodi or a chhoda of ivory but this amaavas of seperation is not ending and the color of seperation in very dark and painful]

The next stanza features another beautiful construction by gulzar saab, as the wife wants natural jewellery the husband offers her two alternatives

मारुथल में घूमे भंवर बगूलों के
ले लो बाहों में भर लो ना
बोलो तो सिलवा दूं सब जेवर फूलों के
खुशबू गहने भर लो ना
"maaruthal me ghoome bhanvar bagoolon ke
le lo baahon me bhar lo na
bolo to silava doon sab zevar phoolon ke
khushboo gahane (me) bhar lo na"

[In the desert there are lots of bhanwars (tornado shapes) of duststorm, you can wear them..]

beautiful thought considering the fact that females in rural and tribal areas do wear such shaped jewelery which covers the hand completely. He has another alternative of having zevars of flowers and comes out with the idea of scented zevars. But wife replies

धूल फूल के जेवर तन पे कांटे लागे
अंसुवन मोती चुन चुन के जो माला बने हम साजे"
"dhool phool ke zevar tan pe kaante laage
ansuvan moti chun chun ke jo maalaa bane hum saaje"

she replies "the best jewellery for me is my emotional connect, the thread made by drop of tears, the most natural zevars. " and you can find a hint of Meera here..

beautiful climax for a beautiful song.. MM Kreem and singrs too contribute to make it a pretty good listening.

enjoy...

just another gulzar fan
Pavan Jha

[Original Posting from Gulzarfans group]
http://groups.yahoo.com/group/gulzarfans/message/2949

रविवार, मई 13, 2007

सन १८५७ - गुलज़ार की एक नज़्म (1857 - a nazm by gulzar)

एक ऐतिहासिक लम्हे को फिर से याद करने के अवसर ने एक और लम्हे को जन्म दिया, जब अपने गुलज़ार साब संसद में बोले, और क्या खूब बोले... मौक़ा था १८५७ की क्रान्ति के ड़ेढ़ सौ साल पूरे होने के अवसर संसद में उस ऐतिहासिक लम्हे को फिर से याद करने का. गुलज़ार साब ने उस १८५७ की क्रान्ति के कई पहलुओं को अपनी इस नज़्म मे समेटा है.. कैसे उस क्रान्ति की चिंगारी से आज़ादी को रोशनी का जन्म हुआ.. कैसे बिना नेतृत्व के १८५७ की क्रान्ति अपने उद्देश्यों को उस समय हासिल नहीं कर पाई, मगर फिर भी एक राष्ट्रीय आन्दोलन की एक आधारशिला स्थापित करने में सफल रही, कैसे लोगों के दिलों में उस जज़्बे का जन्म हुआ.. और कैसे आज़ आज़ाद होकर भी एक और इन्क़लाब की ज़रूरत है... और लगे हाथों बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार के मसले पे भी अपनी प्रतिक्रिया दे गये. आपको अभी मालूम होगा कि सरकार ने अभी पिछले हफ़्ते ही निर्णय लिया है कि बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार बर्मा से भारत में लाने के प्रकिया मे अब और कोई कोशिश नहीं की जायेगी. बहादुर शाह ज़फ़र ने लिखा था "दो गज़ ज़मीं भी ना मिली कू-ए-यार में".. उसी को गुलज़ार साब ने आगे बढ़ाते हुए अपनी नज़्म में कहा है " चालाक था रहज़न, रहबर को इस क़ू-ए-यार से दूर कहीं बर्मा मे जाकर बांध दिया.. काश कोई वो मट्टी लाकर अपने वतन मे दफ़्न करे"..

आज के हिन्दुस्तान की तस्वीर पेश करते हुए कहते हैं.

"इस देश के सारी नदियों का पानी अपना है, लेकिन प्यास नहीं बुझती
ना जाने मुझे क्यूं लगता है,
आकाश मेरा भर जाता है जब, कोई मेघ चुरा ले जाता है
हर बार उगाता हूं सूरज, खेतों को ग्रहण लग जाता है"


नज़्म पेश है..



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सन १८५७


एक नाम एक ख़याल एक लफ़्ज़
जिस पर हमारी तक़रीबन पूरी नेशनल मूवमेन्ट, आज़ादी की तहरीक़ मुनस्सिब थी
उस एक लफ़्ज़ का जन्म

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एक ख़याल था इन्क़लाब का, सन १८५७
एक जज़्बा था, सन १८५७
एक घुटन थी, दर्द था, अंगारा था जो फूटा था
ड़ेढ़ सौ साल (१५०) हुए हैं
उसकी चुन चुन कर चिंगारियां हमने, रोशनी की है
कितनी बार और कितनी जगह बीजी हैं वो चिंगारियां हमने
और उगाये हैं पौधे उस रोशनी के
हिंसा और अहिंसा से, कितने सारे जले अलाव

कानपुर, झांसी, लखनऊ, मेरठ, रूड़की, पटना
आज़ादी की पहली पहली जंग ने तेवर दिखलाये थे
पहली बार लगा था कि कोई सान्झा दर्द है, बहता है
हाथ नहीं मिलते पर कोई उंगली पकड़े रह्ता है
पहली बार लगा था खून खौले तो रूह भी खौलती है
भूरे जिस्म की मट्टी में इस देश की मट्टी बोलती है

पहली बार हुआ था ऐसा,
गांव गांव, रूखी रोटियां बंटती थी
और ठन्डे तन्दूर भड़क उठते थे

चन्द उड़ती हुई चिन्गारियों से सूरज का थाल बजा था जब
वो इन्क़लाब का पहला गज़र था, सन १८५७

गर्म हवा चलती थी जब
और बया के घोंसलों जैसी पेड़ों पर लाशें झूलती थीं
बहुत दिनो तक महरौली में, आग धुएं मे लिपटी रूहें
दिल्ली का रस्ता पूछती थीं

उस बार मगर कुछ ऐसा हुआ
क्रान्ति का अश्न तो निकला था
पर थामने वाला कोई ना था
जाम्बाज़ों के लश्कर पहुंचे मगर
सालारने वाला कोई ना था

कुछ यूं भी हुआ, मसनद से उठते देर लगी
और कोई न आया पांव की जूती सीधी करे
देखते देखते शाम-ए-अवध भी राख हुई

चालाक था रहज़न
रहबर को इस क़ू-ए-यार से दूर कहीं बर्मा में जाकर बांध दिया
काश कोई वो मट्टी लाकर अपने वतन मे दफ़्न करे

आज़ाद हैं अब, अब तो वतन आज़ाद है अपना
अब तो सब कुछ अपना है
इस देश के सारी नदियों का पानी अपना है
लेकिन प्यास नहीं बुझती
ना जाने मुझे क्यूं लगता है
आकाश मेरा भर जाता है जब
कोई मेघ चुरा ले जाता है
हर बार उगाता हूं सूरज
खेतों को ग्रहण लग जाता है

अब तो वतन आज़ाद है मेरा
चिन्गारियां दो, चिन्गारियां दो
चिन्गारियां दो
मैं फिर से बीजूं और उगाऊं धूप के पौधे
रोशनी छिड़कूं जाकर अपने लोगों पर
वो मिल कर फिर से आवाज़ लगायें

इन्क़लाब! इन्क़लाब! इन्क़लाब!

- गुलज़ार
gulzar