गुलज़ार ने चुराया इब्नबतूता पहन के जूता
भूत जनाब बहुत परेशान लग रहे थे। वैसे भी अपने समय में पैदल इतना सारा जहाँ घूमे थे कि सदियों तक उसकी थकान खत्म ना हो। अच्छे खासे इतिहास के पन्नों में आराम फ़रमा रहे थे, नींद से उठा कर अखबार की सुर्खियों में यूं अलसुबह खड़ा कर देने के फ़रमान से तकलीफ़ किसको नहीं होगी। और उस पर ये भी कि ना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इब्नबतूता से उनका कोई वास्ता है और ना ही गुलज़ार के। बोले कि ये बिलावजह हंगामा क्युं है बरपा?
हमने कहा जनाब, ये जूते का दौर है, हर तरफ़ जूते का जोर है, चाहे इराक़ हो या भारत, नेता हो या अभिनेता, राजनीति हो या साहित्य का अखाड़ा, विरोध का इन दिनो सबसे बड़ा औज़ार बन गया है जूता। अब यहाँ के साहित्यकारों के हाथ में आपका जूता पड़ गया है, तो उछालने की होड़ लगी हुई है। कुछ तथाकथित साहित्यकार जो अपनी रचनाओं से अपने लिये जगह नहीं बना सके, आपके जूते के विवाद को उछाल के अखबारों की सुर्खियों में जगह बनाने की कोशिश में जुटे हैं। उनको परेशानी इस बात से हो रही है कि गुलज़ार साब ने सर्वेश्वर जी की कविता से आपका नाम और जूता चुरा लिया है।
"मगर मेरे नाम का कॉपीराईट क्या सर्वेश्वर जी के पास है? क्या मेरी पहचान सिर्फ़ उनकी कविता से है, क्या लोग ये भूल गये कि मेरे कई यात्रा वृतांत दुनिया की कई भाषाओं में छप चुके हैं?" भूत जनाब का प्रश्न था।
"शायद भूल ही गये हैं" मैनें बोला तो नहीं वरना जनाब को बड़ी निराशा होती, बस मन ही मन सोचा । फिर सोचा कि शोर बरपाने वालों को इब्नबतूता से क्या लेना देना, उनका लेना देना तो सर्वेश्वर जी से भी नहीं है। हमेशा किसी ना किसी बात पे परेशान रहते हैं ये लोग। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी पर भी पत्थर (या जूता) उछालने की शायद आदत सी हो गयी है इक जमात को। गुलज़ार साब से कुछ खास शिकायतें रहती हैं, हिन्दी साहित्यकारों का एक तबका कहता है उर्दू के शायर हैं, उर्दू वाले कहते हैं आज़ाद हिन्दोस्तानी में लिखते हैं। शायर-साहित्यकार ये भी कहते हैं फ़िल्मों के गीतकार हैं। उनकी आर्ट की आज़ादपरस्ती, ऐसे शोर दबाने की बहुत कोशिश करते रहते हैं
"वैसे इस बार इन लोगों को असल में किस बात से परेशानी है"? भूत जनाब का अगला प्रश्न था
जनाब, इनका तर्क ये है कि सर्वेश्वर जी बच्चों के लिये कविता लिखी, गुलज़ार साब ने उस कविता को चुरा कर फ़िल्मी गीत का रूप दे दिया है। कुछ साहित्यकार लोगों को इसलिए परेशानी है कि आपका नाम साहित्य से उठा कर फ़िल्मी गीत में ले लिया है और कुछ साहित्यकारों को ये कि गुलज़ार साब ने बिना श्रेय दिये सर्वेश्वर जी की कविता में से आपका नाम और जूता कॉपी किया है। अब सर्वेश्वर जी की कविता या गुलज़ार साब के गीत दोनों में आप की उपस्थिति सिर्फ़ इसलिए है कि आपका नाम जूता के साथ अच्छा ’राइम’ होता है, आपके नाम के ’साउंड’ मॆं बहुत दम है, जो एक कविता या गीत में प्रभाव के लिये बहुत ज़रूरी है। जहाँ तक संदर्भ की बात है दोनों ने आपका और आपके जूते का उपयोग बिलकुल अलग तरीके से किया है। सर्वेश्वर जी की कविता जहां बच्चों के लिये मज़ेदार ’नॉनसेन्सिकल’ फ़ारमेट मे लिखी गई है वहीं गुलज़ार साब ने इसका उपयोग फ़िल्म की स्क्रिप्ट और सिचुएशन के आधार पे किया है। फ़िल्म की शुरुआत में जहां दो चोर, अपने बॉस के पिंजरे से फ़ुर्र हो रहे है, आज़ाद हो रहे हैं... इधर से उधर घुमक्कड़ों की तरह भाग रहे हैं, दबे पाँव निकल रहे हैं, उन्होने जूता पहना नहीं है, बल्कि बगल मे दबाया है क्युंकि पहनने के बाद जूता आवाज़ करेगा और उनका फ़ुर्र होना, भागना आसान नहीं होगा। वैसे मैं क्या फ़ैसला करूं, जनाब आप खुद ही दोनों (कविता और गीत) एकसाथ पढ़ लें और कि क्या ये वाकई में कॉपी है?
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना | गुलज़ार |
इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में थोड़ी हवा नाक में घुस गई थोड़ी घुस गई कान में कभी नाक को कभी कान को मलते इब्नबतूता इसी बीच में निकल पड़ा उनके पैरों का जूता उड़ते उड़ते उनका जूता पहुंच गया जापान में इब्नबतूता खड़े रह गये मोची की दूकान में | इब्ने बतूता, बगल में जूता पहने तो करता है चुर्रर उड उड आवे, दाना चुगेवे उड जावे चिडिया फुर्रर अगले मोड पे, मौत खड़ी है अरे मरने की भी क्या जल्दी है होर्न बजाके, आ बगियन में हो दुर्घटना से देर भली है चल उड जा उड जा फुर फुर दोनों तरफ से बजती है ये आय हाय जिंदगी क्या ढोलक है हॉर्न बजाके आ आ बगियन में अरे थोड़ा आगे गतिरोधक है इब्ने बतूता.. |
"क्या कहते हैं जनाब"?
"पहली बात तो दोनो रचनाओं के उपयोग और संदर्भ में कोई समानता मुझे तो नज़र नहीं आई । और अगर लोगों को ये आपति है कि गुलज़ार साब ने गीत के साथ सर्वेश्वर जी की कविता का ज़िक्र नहीं किया, तो वे ये नहीं कहते कि सर्वेश्वर जी ने कविता में मेरा नाम मेरे किस किस्से या किताब से पढ़ कर दिया है। उनके जेहन में मेरा नाम भी तो मेरा ही कोई किस्सा पढ़ कर आया होगा" जनाब का जवाब था। "बेवजह का मसला खड़ा किया है कुछ लोगों ने और मेरी नींद भी खराब कर दी। है अब मैं भी चिड़िया की तरह फ़ुर्र होता हूं" कह कर जनाब गायब हो गये।
मैं सोच रहा था कि गुलज़ार साब पहले भी कई बार इस तरह के आरोपों के दौर से गुजरे हैं, और खासकर तब भी जब वो अपनी तरफ़ से चला कर घोषित करते रहे हैं कि मिसरा ग़ालिब का है और कैफ़ियत अपनी अपनी, या बुल्लेशाह और अमीर खुसरो की प्रेरणा को कभी नहीं नकारा बल्कि आगे बढ़ कर पहले लोगों को बताया। जबकि फ़िल्म उद्योग में अनेकोनेक, अनगिनत ऐसे उदाहरण रोज़ ही मिलते हैं जहां फ़िल्म, कहानी, गीत, दृश्य, स्क्रिप्ट, नृत्य आदि हूबहू उठा लिये जाते हैं मगर राष्ट्रीय दैनिकों में मुख्य-पृष्ठ पे चोरी के रूप मे उछाले नहीं जाते। आज की खबर निश्चित रूप से स्वार्थी तत्वों द्वारा इक निश्चित एजेंडा के तहत उछाला गया जूता है।
शायद ऐसे ही वाकयों और लोगों के लिये गुलज़ार साब ने एक बार लिखा था
कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
कौन ढूंढे जवाब ज़ख्मों के
लोग तो बस सवाल करते हैं!
[नोट : सर्वेश्वर जी की कविता बचपन में पराग में पढ़ी और स्कूल में गुनी-सुनी-सुनाई है। मेरे लिए सर्वेश्वर जी बहुत आदरणीय व्यक्तित्व और साहित्य के अविस्मरणीय हस्ताक्षर रहे हैं। मगर उन लोगों से तकलीफ़ हो रही है जो उनके नाम से इस तरह से जूते उछाल रहे हैं। इसिलिए ये एक रिएक्शन है आज की खबर पर]
- पवन झा
49 टिप्पणियां:
बिलकुल दुरुस्त फ़रमाया भाई लेकिन सवाल सिर्फ इतना है कि
इन मठाधीशों को समझाए कौन...
बौराई सारी बस्ती है अब आग बुझाये कौन...
जय हिंद...
पहले बुद्धिजीवी समीक्षक होते थे और अब एक नयी नस्ल आ गयी है परजीवी समीक्षकों की, जो अपनी ज़ात में कुछ भी ढंग का लिखने की औकात तो नहीं रखते लेकिन किसी और की लिखाई की खिंचाई करने के लिए जिंदाबाद मुर्दाबाद करने निकल पड़ते हैं, इब्नबतूता किसी शायर या कवि की मिलकियत नहीं है, ना ही उनके नाम का कोई copyright किसी के पास है, वैसे भी इब्न-ए-बतूता का असली नाम किसी को नहीं मालूम है, अब बतूता के कई इब्न भी तो हो सकते हैं और यह दोनों शायद अलग अलग इब्नों के बारे में बात कर रहे हों और हम खामख्वाह में सर फुटौव्वल कर रहे हैं.
पवन जी, आपकी टिप्पणी से करीब-करीब सहमत हूं. दोनों रचनाएं साथ रखकर देखने से बात एकदम साफ हो जाती है. सिर्फ इब्न बतूता और जूता ये दो शब्द समान होने से गुलज़ार को सर्वेश्वर की कविता चुराने का अपराधी घोषित कर देना मूर्खता की पराकाष्ठा है. लेकिन आप भी जानते हैं कि ऐसा क्यों किया जाता है. इसलिए अच्छा तो यहे है कि इस तरह की बातों को नज़र अन्दाज़ किया जाए. बस, एक बात, और वह यह कि इस विवाद के साथ जिन अखिलेश का नाम जुड़ा है, उनके लिए आपकी टिप्पणी उपयुक्त नहीं लगी. वैसे यह भी कौन जानता है कि उन्होंने क्या कहा और क्या नहीं कहा.
बात ठीक है आपकी. अगर किसी राग पर यदि एक से अधिक धुन बनाई जाती हैं तो वह चोरी नहीं होती. इसी प्रकार न जाने कितने एक जैसे वाक्य या पंक्तियां हैं जो कई गानों में, गीतों में आती हैं, लेकिन अलग-अलग होती हैं. व्यक्ति कहीं न कहीं से प्रेरणा तो प्राप्त करता ही है. लेकिन अब जो संगीतकार कुछ विदेशी धुनों की कापी कर लेते हैं उसे क्या कहेंगे.
बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया पवन जी. आप के लिखे एक-एक शब्द से सहमत हूँ. यूँ लगता है कि ये कुछ ख़ाली बैठे लोगों के दिमाग का फ़ितूर है जो कुछ रचनात्मक करने की बजाय फ़िज़ूल के विवाद कर के सुर्खियों में बने रहना चाहते हैं... पर जैसा दुर्गा प्रसाद जी ने कहा, ऎसे लोगों का सब से अच्छा इलाज ही ये है कि इन्हें नज़र अन्दाज़ किया जाए और उन्हें publicity का चारा ना खिलाया जाए जिसकी भूख में वो ऎसे काम करते हैं...
पवन जी, आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ, लोगो को आदत हो गयी है मुफ्त की सुर्खियाँ बटोरने की.
कुछ भी बात हो बस हर कोई निकाल पड़ता है अपनी राय देने.
अब दो शब्द क्या समान हो गए दोनों रचनाओं में लोगों ने फरमान जारी कर दिया की इब्न-ए-बतूता जी का जूता चोरी हो गया... ये ऐतिहासिक किरदार किसी एक की मिल्कियत नहीं होते.
खैर जाने दीजिये इस बारे में चर्चा कर के हम ऐसे लोगों का कुछ और प्रचार कर रहे हैं :-)
गुलज़ार साहब ने ही एक बार कहा था -
"बुड़ बुड़ करते लफ़्ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।"
Ibna batuta14th century mein Moraco mein rehne wale ek gyani vyakti the...isliye na to sarveshwarji ka unse koi taaluk tha aur na hi gulzar saab ka...ab bacha unka juta to hamare bharat mein juta churane ki ek bahut pyaari rasm hai...jise bhool log juta chalene mein adhik vishvas karne lage hein..iske aage kya kahein baki to aap sab keh chuke hai...
एक महत्वपूर्ण जानकारी और मिली है आज. सर्वेश्वर जी की बेटी के हिसाब से सर्वेश्वर जी ने ये कविता 1971 में लिखी थी । मेरे एक मित्र ने आज मुझे बताया कि उनके स्कूल के दिनों (late 50s-60s) में भी उन्हें अच्छी तरह याद है कि इब्नबतूता और जूता मशहूर था और वे लोग उन दिनों अपनी अपनी कलाकारी से लाईनें जोड़ कर इब्न बतूता की नये नये वर्शन्स बनाते रहते थे। सर्वेश्वर जी ने भी इब्न बतूता को उस दौर के किसी लोकप्रिय मुहावरे से ही कविता में ढाला है।
यहाँ तो ऐसा है कि लोग खुले आम क्रेडिट नहीं दिये जाने की वकालत करते हैं जब प्रेरणा स्रोत सामने होता है और यहाँ तो एक ओर बाल कविता है और दूसरी ओर एक फिल्मी गीत जिसकी भावनाओं की समानता दूर दूर तक नहीं तब उस पर उँगली उठाई जा रही है।
आम जनता के बीच वस्तुस्थिति को स्पष्ट केने में आपकी ये पोस्ट सहायक है।
पवन जी,
मुझे भी याद है कि ये बाल कविताएं सर्वेश्वर जी ने अपनी बेटियों के लिए लिखी थीं. उसी किताब में एक कविता थी - विभा शुभा दो बहनें... शायद यह संदर्भ उन बेटियों का ही था.आप सही कह रहे हैं. मुझे भी लगता है कि पिछले कुछ समय से हमारे यहां पेशेवर विरोध कर्ताओं की एक नई जमात की फसल खूब अच्छे से लहलहा रही है. नाम तो होता ही है, शायद नामा भी मिल जाता हो. मीडिया इनके लिए खाद पानी की भूमिका बखूबी अदा करता है. मीडिया को भी इनसे फायदा होता है. लेकिन, मेरा मन अब भी तद्भव के संपादक अखिलेश को ऐसे लोगों में शुमार करने को तैयार नहीं है. और इसीलिए मैंने संकेत में उन्हें संदेह का लाभ दिया है. आपको याद होगा, तीसरे जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में राजस्थानी वाला विवाद. जो विवाद का मुद्दा नहीं था उसे किस कुशलता से विवाद का रूप दे दिया था.और वे लोग जिनके अपमान की बात कही गई थी, निजी बातचीत में अपने अपमान को नकारते हुए भी एक 'समझदारी भरी चुप्पी' अख्तियार किये रहे. चौथे फेस्टिवल में भी इसी अखबार को विक्रम सेठ के व्यवहार में खोट नज़र आया, और दो सालों की मेहनत इस साल कैसे रंग लाई है, यह कहने की ज़रूरत नहीं है. इसीलिए मैंने कहा कि क्या पता किसने क्या कहा? वो गाना है ना, जाने क्या तूने कही...जाने क्या मैंने सुनी, मगर बात कुछ बन ही गई.
बतूता का जूता
http://aabailmujhemaar.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
भैय्या पवन, ये इब्न बतूता और उनका जूता तो चालीसों साल से शब्दों की छेड़ छाड के लिए बा ख़ुशी सभी के लिए सहज रूप से उप्लब्ध रहें हैं .सर्वेश्वर जी ने तो ये बाल गीत १९७१ मैं लिखा था ,लेकिन हम लोग तो १९६६-६७ मैं ही उन्हें जूता पहना कर जब चाहे हिन्दुस्तान या और जहाँ हमारी इच्छा होती थी बुला लिया करते थे .
'इब्न बतूता पहन के जूता आया हिन्दुस्तान
'आते ही कोई चोर ले गया इनका सब सामान '
और इसके बाद जिस जिस आशु कवि को जो भी सूझता था वो सब इब्न बतूता जी के साथ होता था लेकिन इब्न बतूता ने कभी कोई ऐतराज़ नहीं किया .
यहाँ तक की एक बार तो किसी शरारती आशु कवि ने उन्हें कॉलेज की कैंटीन से सीधे लन्दन के सोहो इलाके मैं भेज दिया ,बेचारे के साथ वहां जो जो हुआ उसकी तफसील यहाँ देना उचित नहीं लग रहा है,but one can understand you know!!
अब आज ये इब्न बतूता का नया वारिस कौन पैदा हो गया ??
अरुण
अरूण जी,
जानकारी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। मेरे ख्याल से आपकी टिप्पणी इस पूरे प्रकरण पर सबसे महत्वपूर्ण है। खासकर इसलिए कि सर्वेश्वर जी के इब्न बतूता का जूता भी लोकप्रिय मुहावरों से ही जन्मा हुआ है, और उनकी कविताओं के पहले से अस्तित्व में है, जैसा उस दौर के आपके संस्मरणों से जाहिर है। जो लोग इस बात का इतना बवाल मचाए हुए हैं उनकी आँखे खोलने के लिये इतना ही काफ़ी है। अगर सर्वेश्वर जी आज होते तो शायद इब्न बतूता का जूता आज इतना नहीं उछाला जाता और ना ही वे शायद इसकी इजाज़त देते।
यह खबर दैनि्क भास्कर में छपी थी न?
हां तो फिर
मै इस मुद्दे से इतर बात करूंगा, पहले तो यह जानना चाहूंगा कि दैनिक भास्कर कब से राष्ट्रीय अखबार हो गया?
क्या सबसे ज्यादा राज्यों में सबसे ज्यादा संस्करण होने मात्र से कोई अखबार राष्ट्रीय अखबार हो जाता है?
ऐसे में तो जनसत्ता को कभी राष्ट्रीय अखबार होने का खिताब हासिल नहीं होना चाहिए था…
क्या ख्याल है?
बाकी रही भास्कर की बात तो उसे मुद्दे उछालना खूब ही नहीं बखूबी आता है…
आज के अंक में सर्वेश्वर दयाल जी की सुपुत्री का भी बयान ले आए भास्कर वाले, अरे भई इस सेंटी मुद्दे पर कौन बेटी अपने पिता की रचना के समानांतर किसी रचना के समर्थन में बात करेगी, खिलाफ में ही कहेगी न
इब्ने बतूता बनाम इब्ने बतूता
इब्नेबतूता का ज़िक्र परसों से कुछ अखबारों में काफ़ी सुर्खियों मे है कि श्री सर्वेश्वर दयाल जी की कविता से "इब्ने बतूता पहन के जूता" इस पंक्ति का गुलज़ार साब ने अपने इक गीत मे उपयोग किया है और उसका श्रेय श्री सर्वेश्वर दयाल जी को नहीं दिया। उनकी पूरी कविता व गुलज़ार साब के गीत में सिर्फ़ इब्ने बतूता और जूता ही है जो दोनों में शामिल हैं। इब्ने बतूता तो पुरातन काल में एक यात्री थे और जूता तो आप हम सबको मालूम ही है कि क्या है। तो आखिर परेशानी किस बात की है। यदि ऐसा ही सोचें तो हमें मेरा जूता है जापानी का ज़िक्र भी करना होगा। खैर ये बिल्कुल बचकाना तर्क है क्यूंकि कविता और गीत दोनों की आत्मा में ज़मीन आसमान का फ़र्क है । आदरणीय श्री सर्वेश्वर दयाल का कद नापने के लिये उनकी एक छोटी सी कविता ही काफ़ी है
"मैं घास की पत्ती के सम्मुख झुक गया
मुझे लगा मैं आसमां छू रहा हूं"
गुलज़ार साब के व्यक्तित्व के बारे में आप मैं, हम सब जानते हैं और बहूमुखी प्रतिभा के हम सब कायल हैं। आरोप पर खामोश हैं क्यूंकि जवाब समझदारों को ही दिया जाता है। लेकिन आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन!
-अशोक बिन्दल
क्या बात है अशोक जी आपने बड़ी पुरानी दो लाइनें याद दिला दीं
'शोर ऐ दरिया से ये कहता है समंदर का सुकूत
जिसमें जितना ज़र्फ है उतना ही वो खामोश है '
इब्नबतूता के शोर शराबे में पत्रकार ये भूल गए हैं कि रचनात्मकता के आकाश की तुलना में शब्दों का आकाश अब भी बहुत छोटा है, रचनाओं के सागर में शब्दों का टकराना तो आम बात है.
अगर किसी एक रचना की एक लाइन दूसरी रचना को जन्म दे तो इस से अच्छी बात और क्या हो सकती है. किन्तु मीडिया को इन बातों से कोई लेना देना नहीं है.
सारा बवाल पहली लाइन पर है, "इब्नबतूता, बगल में जूता" सारे मीडिया को सिर्फ ये लाइन ही दिखाई दे रही है, इसके आगे का सारा गीत भुला दिया गया है.
ये "पत्रकारिता है या ढोलक है, दोनों तरफ से बजती है"
चित भी मेरी और पट भी मेरी.
gulzarsab ki bulandiyo ke akash ko choo n sakanewale but, dhuna rahe hai IbnBatuta ka bhut.
Let me start by saying: I too like Gulzar Sahab and his lyrics like all of you. But this is strange...this is deja-vu of a bizzare kind. While reading another poem titled 'Aksar ek vyatha' by sarveshwar Dayal Saxena some months back I remembered Gulzar. Film 'Kaminey' had released around that time and one of its songs 'Pehli baar mohabbat ki hai' had these lines -
'yaad hai pepal ke
jisak ghane saaye the
hunme gilhairi ke jhoote matar
khaaye the'.
I was surprised to read striking similar lines in Sarveshwar Jee's poem, which went like this -
'Suraj ko gilhari
ped par baithi khaati hai
aksar duniya
matar ka daana ho jaati hai'.
And now the recent controversy involves Gulzar Sahab plagiarizing the same poet! Is it just a coincidence? Or is it a case of subconsciously following someone whose work you may have admired all this while.
I am also aware of the fact that Gulzar Sahab writes regularly for a children magazine called 'Chakmak', published from Bhopal. Last year, Sarveshwar's poetry 'Ibn-e-batuta, pehen ke joota' was published in this magazine. May be Gulzar Sahab got exposed to it then or got inspired from there.
No one doubts Gulzar Sahab's talent but it is too much of a coincidence to ignore! And when it comes to showing solidarity, there isn't much choice between a poet and a lyricist. Especially in the light that Sarveshwar Jee is not alive to defend his own work, which he must have painstakingly conceived and crafted.
Well gentleman, if you don't have any doubts about Gulzar saab's talent then you should not be questioning his work in first place secondly we all have gilhari, peepal,matar..even jutas in our life but our approach towards them is different..if Sarveshwarji made Ibn batuta wear the juta Gulzarsaab made him carry juta by his side, rest is a total different story..now to put the ghost of Ibn batuta back in the bottle...let's bid him farewell on his birthday which happens to be on 24th of this month...hope quite a few would agree to this ...
Gulzaar Saa’b ke telent par kisne prashnchinh kiya ? Aaj dashko se wo logon ke dilon mein raaz kar rahe hai….bacche, budhe jawan sabhi unhi se pyaar karte hai …..unki kalam aisa jaadu bikherti hai ki har dil ko lagta hai jaise uske apne jazbaat ho……aur gulzaar hi kyon …meera, raheem, kabeer, soor, tulsi, meer taki meer, ghalib, bulleshah, ahmed faraz, nida fazili, parveen shakir, Jaan nisaar akhtar, sahir, kavi pradeep, neeraj, subhadra kumari chauhaan, mahadevi verma, shakeel badayuni, zaved akhtar, prasoon joshi……aur bahut saare……sabhi ka jikr to yahan nahi ho sakta….ye wo naam hai jinka aanklan kam nahi kiya ja sakta ….sab mahan hastiyan hai …..han itna zaroor hai ke kisi ke pass lokpriyta thodi zyada hai aur kisi ke pass kam….aur aise bhi hai jo bilkul bhi lokpriya nahi lekin hunar mand hai…………Kavi ki lekhi bade shayro ko padhne se aur abhyas se nukeeli dhardaar hoti hai……Is baat se inkaar nahi kiya jaa sakta ki gulzaar saa’b ne Sarveshvar ji ko na padha ho……..hamare achetan mastishk mein bahut see baatein store hoti hai ……kavi kab kis cheez se prerit hoga ye nahi kaha jaa sakta…….prerna ke liye ek shabd bhi kaafi hai aur khabi hazar panne ki moti kitaab bhi nahi………
Jahan tak mujhe pata hai….gulzaar saa’b bahut padhte hai…….tabhi to wo nayaab tohfe hamein dete hain……ye demaag ka unconscious hissa kab kya store kar lega ye to unhe bhi nahi pata……..
“ Gulzaar ko pyaar karne waale
Ye na samjhe ke hamein unse mohaabat nahi
Bas meri mohabbat andhi nahi “
(pathko se nivedan hi ki wo hamari pratikriya ko sakaratmak le…..kyoki gulzaar ki diwaani hoon main pagal nahi )
THE GHOST OF IBN - BATUTA
PLEASE SEE FIRST TWO LINES :
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना गुलज़ार
इब्नबतूता इब्ने बतूता ता ता,
पहन के जूता बगल में जूता
To any reader A STRIKING IMILARITY IS OBVIOUS.
Either Gulzar Sahab Got Inspired by this
OR
This is a coincidence.
In both Cases, Acknowledging CREDIT for ORIGINAL OPENING TO सर्वेश्वर दयाल सक्सेना would have increased respect for गुलज़ार Sahab.
PAR YEH HO NA SAKA .
Instead on a TV Interview, गुलज़ार Sahab divided his reply in following 2 parts.
First :
That इब्नबतूता is a historic character & any one can use it (Like use of Marco- Polo)
Second :
That his second line is : बगल में जूता
& Second Line by सर्वेश्वर दयाल सक्सेना is : पहन के जूता
And These two lines are different.
In A Newspaper Report Sarveshvar Dayal Saxena's daughter ASKED FOR:
SHE CLEARLY SAID NO MONEY IS SOUGHT , ONLY CREDIT TO HIS FATHER FOR THOSE OPENING LINES.
Now why this simple issue is drowned :
1)in name of Gulzar Sahab other WORKS & CREDIBILITY & REPUTAION.(NO BODY DOUBTS THAT).
2)Or Character Assasination of Writers who Questioned it -
( Comments from others Posts -कुछ चिलप्पों करने वाले तथाकथित साहित्यकारों )
3) OR That DAINIK BHASKAR IS NOT A NATIONAL PAPER. - ( Comments from others Posts - मै इस मुद्दे से इतर बात करूंगा, पहले तो यह जानना चाहूंगा कि दैनिक भास्कर कब से राष्ट्रीय अखबार हो गया?
WHY SIDE - TRACK THE MAIN ISSUE ?
Mr Benami's Post ABOUVE in this Regard is very peculiar & worthy of reading.
As Far As I see :
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना is the ORIGINAL WRITER OF LINES & SHOULD ACCORDINGLY BE CREDITED FOR THAT.
SIMPLE & OVER
THE GHOST OF IBN - BATUTA
PROPERLY EDITED SECOND POST
PLEASE SEE FIRST TWO LINES :
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इब्नबतूता
पहन के जूता
गुलज़ार
इब्ने बतूता ता ता,
बगल में जूता
IS THERE A STRIKING SIMILARITY IS TOO OBVIOUS OR I AM BEING BLIND ?
Either Gulzar Sahab Got Inspired by Mr Sarveshwar Dayal's Line
OR
This is a coincidence.
In both Cases, Acknowledging CREDIT for ORIGINAL OPENING TO सर्वेश्वर दयाल सक्सेना would have increased immense respect for गुलज़ार Sahab.
PAR YEH HO NA SAKA .
Instead on a TV Interview, गुलज़ार Sahab divided his reply in following 2 parts.
First :
That इब्नबतूता is a historic character & any one can use it (Like use of Marco- Polo)
Second :
That his second line is : बगल में जूता
& Second Line by सर्वेश्वर दयाल सक्सेना is : पहन के जूता
ARE Two Completely diffrent Lines.
In A Newspaper Report Sarveshvar Dayal Saxena's daughter ASKED FOR:
SHE CLEARLY SAID NO MONEY IS SOUGHT ,ONLY CREDIT TO HIS FATHER FOR THOSE OPENING LINES.
Was She Asking Too Much ?
Now why this simple issue is drowned in following arguments :
1)in name of Gulzar Sahab other WORKS & CREDIBILITY &REPUTAION.
(NO BODY DOUBTS THAT).
2)Or Character Assasination of Writers who Questioned it -
( Comments from others Posts -कुछ चिलप्पों करने वाले तथाकथित साहित्यकारों )
3) OR That DAINIK BHASKAR IS NOT A NATIONAL PAPER. - ( Comments from others Posts - मै इस मुद्दे से इतर बात करूंगा, पहले तो यह जानना चाहूंगा कि दैनिक भास्कर कब से राष्ट्रीय अखबार हो गया?
WHY SIDE - TRACK THE MAIN ISSUE ?
Mr Benami's Post ABOUVE in this Regard is very peculiar & worthy of reading.
As Far As I see :
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना is the ORIGINAL WRITER OF LINES & SHOULD ACCORDINGLY BE CREDITED FOR THAT.
SIMPLE & OVER
संजय,
While as you said there is a striking similarity, please note "Ibn Batuta Ka Joota" phrase was not originally penned by Sarveshwar Ji.. It was a popular muhavara of 50s and 60s.. as one of the bujurg readers has confirmed that they used to make fun of "Ibn Batuta Ka Joota" way back in early to mid 60s in their school college days with parodies.. And it is on record that Sarveshwar ji penned this poem in 1971 for his daughter. It is evident that Sarveshwar ji too picked the popular phrase in his poem.
Now tell me if I take "Akkad Bakkad Bambe Bo" in any of my poem or song, whom should I credit it to? Will Neeraj ji have problems if someone uses it, because he himself has used it earlier.. (but not phrased by him?)
I will give you another example.. In "The Blue Umbrella" there is a song by Gulzar saab, "Mera Tesu Yahin Ada, Khane ko Mange Dahi Vada"... now when my father heard it one day, he told me It has the same words when we were kids and used to collect Chanda in Gali-Mohalla in Delhi in early to mid 50s. I checked with Gulzar saab and he said yes, even as a Kid they used to sing the same.. Now the question is who you will give credit to something very popular in masses..
बहुत दिन हो गए भाई अब तो जूते पे बैठ के जूता चलाना बंद करो. गुलज़ार साहब को लगता है अब एक नया सेक्रेटरी रखना पड़ेगा जो यह बताये की कहीं यह लफ्ज़ या शब्द किसी कविता में पहले तो नहीं आया है. मीडिया और खिसियाये पत्रकारों के मुंह में नए तरीके का खून लग गया है. अब जब जब गुलज़ार साहब कुछ भी लिखेंगे यह लोग सब काम छोड़ कर लग जायेंगे पुरानी किताबें खंगालने और इस लिहाज़ से लगता है उन्हें मजबूरन किसी और ही ज़बान में लिखना पड़ेगा. लगे रहो जूतेबाज़ों.
janab pawan ji lagata hai aap gulzar ji ke vakil hain, jo unhe chori ki saza se mukti dilana chahate hain. meri do panktiyo par gaur farmayen
mera beta boski
moti boond oski
Janab yahan maine beti kee jagah beta kar dia hai nanhee boond ki jagah moti boond kar diya hai
kya aap ise original kavita manege agar ha to phir geet bhee original hai.
gulzar sahab kee rai avashya le len.
aadarniya pawanjee
kripaya us beti ke dil se sooche tab pata chalega ki kavita ko geet bana kar agar koi credit le jaye to kaisa lagata hai. chori to chori hai phir woh chahe 1 paise ki ho ya phir 1 lac kee. budhijiviyon ne sahi kiya plagiarism par ankush lagana zarooree hai varna film valo ke hausale buland hote jaayege. abhee mukhada hai phir antara bhee her pher kar ke udhane lagege.
meree nazaron me gulzar sahab kee garima kam ho gayeehai.
aadarniya pawanjee
kripaya us beti ke dil se sooche tab pata chalega ki kavita ko geet bana kar agar koi credit le jaye to kaisa lagata hai. chori to chori hai phir woh chahe 1 paise ki ho ya phir 1 lac kee. budhijiviyon ne sahi kiya plagiarism par ankush lagana zarooree hai varna film valo ke hausale buland hote jaayege. abhee mukhada hai phir antara bhee her pher kar ke udhane lagege.
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Pawan sahab
gulzar ji jaisa geetkar sadiyon me ek baar paida hota hai. unke geet dil ko chhu jaate hai. lekin ek baat kaa jawab de KYA SARVESHWAR dAYAL sAXENA JAI SA KAVI KYA ROZ ROZ PAIDA HOTA HAI?. Dono apanee apanee jagah pratishthit hai. phir agar gulzar ji mukhade ko tod marod kar geet banaya hai to kiya yah sahi hai? ek baat yaad rakhe kucchh samay baad log antara bhool jate hai sirf mukhada hi yaad rahata hai. mukhada to sarveshwar ji ka hai. GULZAR SAHAB KA SAMMAN ISEE MAIN HAI KI VOH CREDIT DE DEN. unke fans kee katar aur lambee ho jayegi. kad aur lamba.
बहुत डर लगता है इन बेनामियों से.. अपने छिपे हुए चेहरे और बदले हुए नामों से टिप्पणियां शायद इसलिए करते हैं कि या तो अपने विचारों पे पूरा भरोसा नहीं है, या फिर कोई हिडन एजेन्डा ले कर छापामारों की तरह छुप कर वार करना चहते हैं, लड़ना भी चहते हैं मगर चेहरा छिपा कर..
बेनामी जी... चोरी? अगर आप ये कहना चाहते हैं कि गुलज़ार साब ने सर्वेश्वर जी की कविता से दो शब्द चुराए हैं तो शायद आप ही ये भी कह रहे हैं कि सर्वेश्वर जी ने भी इतिहास की किताबों से एक शब्द चोरी किया है "इब्न बतूता".. क्या अपनी कविता में इसका श्रेय किसी को दिया है उन्होने?.. मगर मैं आप लोगों की तरह सर्वेश्वर जी जैसे हस्ताक्षर को इस बेकार बहस में नहीं घसीटना चाह्ता. उनके सृजन, उनकी कल्पना और कविता का मैं कायल रहा हूं और आज भी हूं.. अफसोस कि जूते के साथ उनका नाम भी इस विवाद में उछाला जा रहा है।
थोड़ा सा आग्रह आप सब से ये भी कि अपने पिता-दादा के उम्र के लोगों से पूछताछ करें कि इब्न बतूता का जूता क्या उनके समय में भी प्रचलित था (before 1971, in 50s-60s) शायद आप लोगों को अपने आरोपों का जवाब मिल जाएगा।
Aadarniya Pawanjee,
Pahale to main yah clear kar don ki ibn-e-batuta ek historical character hai, chori to joote kee hui hai. aap ke jis dost ne aap ko yah bataya ki 50s aur 60's me bhee batuta aur unka juta prachlit the kripaya unse poochhiye ki woh is mith se anjaan hai ki ibn-e-batuta ne sara ka sara safar nange pair hi kiya tha, hussain aur batoota he the jinhone nange pair safar kiya tha. ek baat aur bataaye gulzar saab ke liye agar ibne-batoota important tha to vah use p.t shoes pahana dete ya phir meter to alag kar dete jaise ibne-batoota daude lekar joota. agar joota important tha to marco polo ko pahana dete. batuta ko juta to sarveshwar jee pahana hee chuke the.
Benaami jee......aapke tark mein to jaan hai...lekin tippadi benaam kyo ? Arey apne naam ke saath saamne aaiye...Vichaar rakhiye open manch hai...Pavan ji case nahi file karne waale aur hamare desh mein "right to expression" hai. Chup kar waar karne waala ya to kayar hota hai ya fir use khud par bharosa nahi hota....Mukhda to sarveshwar ji ki kavita se inspire hai aisa hamko bhi lagta hai....Lekin intentionally nahi kiya hoga unhone.....kai hote hai dimaag mein words...Mumkin hi Gulzaar saa'b khud bhi na jaante ho ki unhone ise kahan padha....HO jata hai kai baar aisa....Unconscious mind mein cheeze store...
priya jee
danyavaad aapne to bina bias hue apane comments diye varna pawan ji to sarveshwar je ko hee chor thaharane lagate hain. Phir tark karne ka kya fayada. Pawan jee kee galati nahi hai ugate sooraj ko sabhee salam karate hai, aaj agar sarveshwar ji zinda hote to kaun janata hai ki shayad yahee pawan jee sarveshwar jee ke favour mein blog likhate.
Mana gulzar saab ne unconscious mind se geet ka mukhada rach dala kya unkee garima is mein nahi hai ki ab jab yah jag zahir ho chuka hai ki mukhada sarveshwar jee ka hai to woh asal racheyata ko shreya bhar de dein.
dear fans and critics of gulzar saheb, all i can say that getting inspired from anybody s work is not a crime and gulzar saab had never kept it as a secret, as we all aware of this in his previous works, like patta patta boota boota of mir, zihale muskin , naina milaike of khusro,mainda yaar maila de of baba gulam farid, dil dhoondta hai phir wahi and many others of ghalib, these all inspirations are just a part of process or thought.
why critics are not discussing his bare originals, i doubt that these so called critics hv this much capability to understand his work,they only relate his work with wht they read earlier some where else.
kindly upgrade your intellectual levels and be proud that you are born and living in those decades when gulzar saheb is at his best.
Dear vinish
as you your self has said gulzar sahab never keeps his inspiration a secret then why is he doing it this time. Is he guilty? any i love him too much to get into such trivial things.
Dear Mr. Vinish....how much do you know about Literature ? You need to upgrade you intelligent level .It seems to your comment that your knowledge is extend up to bollywood lyricst and some world fame poet of India.First you have to think .....you are real fan or admirer of Gulzaar Saa'b or flatter.
dear priya , u r getting personal,so u may not comment on my understanding for literature. its all abt gulzar saab we r talking about.if u understand literature and poetry so well then u must be aware of , how inspirations work and its difference from copying.
dear richa, hv u ever heard that poem in childhood
vasco d gama , go to the drama...
without his payjama.........
i don t know who s the writer of this funny,cheap poem,if somebody get inspired from this then credit should b given to whome?
vasco de gama is a another character from history and pyjama is so obvious word.
Dear Vinish
It is not the question of rhyme alone, or obvious things as you have pointed out. It is the question of sanctity of words. You can rhyme a number of words with Batuta or De Gama. But no one will take notice of all that if it has no meaning. The poem written by Sarveshwar Dayal Saxena has its own charm and logic. The rhymes will only attract a child but the purity of meaning is something we call literature. Only thing Gulzar should do is to just acknowledge the source of his inspiration. May be at the back of his mind he is not sure when he read this poem. But he must have come across it. It is written by a great man of words and Gulzar himself being a lyricist knows the meaning of words.
Dear Vinish,
Let me first of all congratulate you for your understanding of Literature. You are comparing a work of a Sahitya Akademi winner to some cheap couplet, comparing a well-known Hindi poet to unknown stupid perhaps unintelligent school children. Do you think this great poem you quoted is written by some Akademi winner poet? If yes, then he/she should be given credit too. Anyways, you may not be aware of copyright act. What do you know about copyright act?
पवन जी सन्योग से मेरा भी नाम पवन झा ही है. वज़ह तो है बात बढाने की, आप दोनो रचनाओ जरा फिर से देखें -
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी कि कविता एवम गुलज़ार जी के गीत में समनता कुछ इस तरह है -
# सर्वेश्वर जी -
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
@ गुलज़ार जी -
इब्ने बतूता,बगल में जूता
पहने तो करता है चुर्रर
दोनो को मिलाएये - तो आप पयेंगे -
* मीटर समान है
* धुन समान है
* प्रसंग समान है
* विषय-वस्तु समान है
किसी गाने या कविता का मुखडा ही प्रसिढ होत है 100 में से 99 फिसदी लोग सिर्फ इसे ही याद रखते हैं.
खैर, ग़ुलज़ार साहब के लिये विवाद नया नहीं है. क्या गुलज़ार साहब को जुगरु होना उनके प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है.
Vinish ji ye aapki soch hai ki maine personal liya hai....Iske liya ham kuch nahi kar sakte wo aapka nazariya hai..... Agar ham 10,000 baar gulzaar saa'b ki prashnsa karte hai...unko follow karte hai ....unki har ada se pyaar hai ...to koi nahi poochta ki aisa kyon? aur agar ek baar unki taraf nakartmakta dikhai to aap jaiso ko bura lag jata hai...aap kutark karte hai ...ek prashank, dost, fan ka ye kartavya hai ki wo sachchai samne rahkhe, sachcha feedback dein....
geet-e-gulzar
bulandi na chhuta
gar sarkaya na hota unhone joota ho jaata charmar churr
aaj koi bhi bachcha
hai na isse achhota
sarveshwar ki kavita
ibne batuta pahan ke joota
ka he hai boota
jo rachi- basi hai har dil mein
kabhi na hogi charmar churr
geet ho jayega phurr
'इब्न बतूता पहन के जूता आया हिन्दुस्तान
'आते ही कोई चोर ले गया इनका सब सामान '
अरुण जी, क्रिपया यह बताने क कष्ट करे कि यह मुहवरा किस मुहवरा कोश मे दर्ञ हे.अपका हिन्दी साहित्त्य पर बहुत उपकार होगा.
I think the problem boils down to rhyming 'batuta' with 'joota'. I am a big fan of gulzarji; sarveshji (not read much of him) seems to be talented too. But, with due respect to both writers, I would say that rhyming 'batuta' with 'joota' would have to be the first, most obvious thought in a rhymester's mind. That both writers succumbed to the temptation of using in their opening lines this unimaginative kaafiya (expected more from a 6-year old schoolkid) is already disheartening. Then, for one camp to call the other a copycat is like the joke about the two boys quarreling outside the exam hall. When a passerby asks them what the problem is, one of them says "This fool left his answer paper blank." The passerby asks, "So?"
The student replies, "I also left my paper blank and now the examiner will think that we copied from each other."
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