कभी कभी लैम्प पोस्ट के नीचे कोई लड़का
दबा के पैन्सिल को उंगलियों में
मुड़े-तुड़े काग़ज़ों को घुटनों पे रख के
लिखता हुआ नज़र आता है कहीं तो..
ख़याल होता है, गोर्की है!
पजामे उचके ये लड़के जिनके घरों में बिजली नहीं लगी है
जो म्यूनिसपैल्टी के पार्क में बैठ कर पढ़ा करते हैं किताबें
डिकेन्स के और हार्डी के नॉवेल से गिर पड़े हैं...
या प्रेमचन्द की कहानियों का वर्क है कोई, चिपक गया है
समय पलटता नहीं वहां से
कहानी आगे बढ़ती नहीं है... और कहानी रुकी हुई है।
ये गर्मियाँ कितनी फीकी होती हैं - बेस्वादी।
हथेली पे लेके दिन की फक्की
मैं फाँक लेता हूं...और निगलता हूं रात के ठन्डे घूंट पीकर
ये सूखा सत्तू हलक से नीचे नहीं उतरता
ये खुश्क़ दिन एक गर्मियों का
जस भरी रात गर्मियों की
- गुलज़ार
[नया ज्ञानोदय [अप्रैल २०१०] से साभार]
7 टिप्पणियां:
अद्भुत खास कर गोर्की वाली बात, वो मेरे भी पसंदीदा हैं. क़यामत की कविता है. मुड़े-तुड़े काग़ज़ों को घुटनों पे रख के, पजामे उचके ये लड़के, डिकेन्स के और हार्डी के नॉवेल
कहानी आगे बढ़ती नहीं है... और कहानी रुकी हुई है
हथेली पे लेके दिन की फक्की
मैं फाँक लेता हूं...और निगलता हूं रात के ठन्डे घूंट पीकर
ये सूखा सत्तू हलक से नीचे नहीं उतरता
और
जस भरी रात गर्मियों की
लीजिये हमने पूरी कविता की कोट कर दी... और अब याद करने की कवायद जारी है.
wowwww...
:)
aapke rachanaa ko saraahane ke liye mere paas aap ki taraha shabda nahi hai shabda gyan ki kami ke chale mai kuch nahi kaha paa rahi hoon par mai bahut kuchh kahanaa chahatii hoon
गुलजार साहब, आपका अंदाज जुदा है. आप यूँ ही लिखते रहें.
hamesha ki tarah behtrin
sir u r great
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