होंठ हिलते हैं भिखारी के, सुनाई नहीं देता
हाथ के लफ़ज़ उछलते हैं, वो कुछ बोल रहा है,
थपथपाता है हर इक कार का शीशा आकर
और उजलत में है
ट्रैफ़िक के सिग्नल पे नज़र है!
चेंज है तो सही
कौन इस गर्मी में अब कार का शीशा खोले,
अगले सिगनल पे ही सही
रोज़ कुछ देना ज़रूरी है, ख़ुदा राज़ी रहे!
[नया ज्ञानोदय [अप्रैल २०१०] से साभार]
3 टिप्पणियां:
gulzar tuch
ये मंजर चिलचिलाती धूप का भी है और बिलबिलाती भूख का भी...
खुदा इस मंजर का भी कुछ करे...
taariif ke liye shabd nahii hai
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