रविवार, मई 23, 2010

एक और मंज़र - ट्रैफिक सिग्नल का

होंठ हिलते हैं भिखारी के, सुनाई नहीं देता
हाथ के लफ़ज़ उछलते हैं, वो कुछ बोल रहा है,
थपथपाता है हर इक कार का शीशा आकर
और उजलत में है
ट्रैफ़िक के सिग्नल पे नज़र है!

चेंज है तो सही
कौन इस गर्मी में अब कार का शीशा खोले,
अगले सिगनल पे ही सही
रोज़ कुछ देना ज़रूरी है, ख़ुदा राज़ी रहे!

[नया ज्ञानोदय [अप्रैल २०१०] से साभार]

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

gulzar tuch

ओम आर्य ने कहा…

ये मंजर चिलचिलाती धूप का भी है और बिलबिलाती भूख का भी...


खुदा इस मंजर का भी कुछ करे...

Anamikaghatak ने कहा…

taariif ke liye shabd nahii hai